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साथियों शहरों में बसावट की रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जो प्रवासी मज़दूर शहर छोड़ कर चले गए थे, वे फिर लौटने लगे हैं। क्योंकि गाँव में स्थिति और ख़राब है। वहाँ न तो मनरेगा का काम है और न ही कोई उद्योग धंधा। साथ ही अगर बीमार पड़े तो उसके लिए अस्पताल तक नहीं हैं। क्या सरकार का यह दायित्व नहीं है कि उन श्रमिकों को रोज़गार दे? साथियों,उद्योग क्षेत्र में काम मिल पाना तो बहुत ही मुश्किल है और साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी देने वाली योजना मनरेगा का हाल भी बुरा है। सरकार द्वारा ससमय मजदूरी भुगतान का दावा तो किया जाता है, लेकिन समय पर भुगतान कभी नहीं हो पता है। इससे मजदूरों की परेशानी और भी बढ़ जाती है। साथियों,अब हम आपसे जानना चाहते है कि क्या सरकार बेरोजगारी दूर करने के लिए कोई प्रयास कर रहीं है?क्या आपको लगता है कि सरकार सभी बेरोजगारों को नौकरी देने में सक्षम हो पायेगी ? अगर हाँ तो अब तक रोजगार मुहैया क्यों नही का पा रही है?अपनी बात बताने के लिए दबाएं नंबर तीन का बटन..

साथियों, इस कोरोना काल में जहाँ एक तरफ देश में कोरोना के चलते उद्योग-फैक्ट्रियां बंद है वही दूसरी तरफ मजदूरों के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है। अधिकतर कंपनियां बंद है और श्रमिक इस कड़कती धुप में काम की तलाश कर रह हैं। इसके अलावा हमारे श्रमिक साथियों का कहना है कि वैक्सीन नहीं लगवाने पर कंपनियां श्रमिकों को काम से निकाल रही है,आइये सुनते है पूरी बात.. तो साथियों ,सुना आपने? सरकार ने इस मुश्किल वक्त में पुरी तरह से चुप्पी साध ली है। न तो रोजगार की व्यवस्था कर रही है और ना ही श्रमिकों को उचित मजदूरी मुहैया करा रही है। साथियों,अब हम आपसे जानना चाहते है कि पिछले लॉकडाउन और इस लॉकडाउन में काम में किस प्रकार का प्रभाव और अंतर हुआ है ?आपको क्या लगता है क्या केवल लॉकडाउन के कारण बेरोजगारी बढ़ गई है या फिर इसका कोई और कारण हैं? इस पर अपनी बात ज़रूर रिकॉर्ड करें अपने फ़ोन में नंबर तीन दबाकर।

कोरोना की दूसरी लहर ने मजदूरों को फिर से किया मजबूर पर आधारित हमारे श्रमिक साथियों की राय-प्रतिक्रिया लेकर। साथियों जैसा कि हम सभी जानते है कि कोरोना महामारी ने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी है और साथ ही आंकड़े बताते हैं कि कोरोना की दूसरी लहर की वजह से भारत में एक करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हो गए. साथियों,साझा मंच पर कई श्रोताओं का कहना है कि बेरोजगार हुए मजदूरों को नई नौकरियों की तलाश करने में काफी परेशानी हो रही है और साथ ही आइये सुनते हैं व्यवसाय क्षेत्र में लोगो का क्या कहना है .. वही मंजर एक बार फिर से देखने मिल रहा है। मजदूर फिर से पलायन करने को मजबूर है। सरकार है कि दावे तो बहुत करती है लेकिन आर्थिक मदद सिर्फ कागजों पर ही दिखता है। लॉकडाउन ने तो मजदूरों की कमर ही तोड़ कर रख दिया है। कुछ हालात संभलें ही थे की दूसरी लहर ने आर्थिक परिस्तिथियों को फिर से ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया कि बेबसी का आलम फिर से है। दावे तो सरकार द्वारा बराबर किए जाते हैं कि मजदूरों के साथ सरकार खड़ी है लेकिन असलियत कुछ और होता है। ऐसे में सवाल जरूर उठता है कि आखिरकार कोरोना के इस आपातकाल में कौन लेगा मजदूरों की सुध?साथियों अगर आप इस पर अपनी बात रखना चाहते है और अगर आपको हमारी आज की पेशकश अच्छी लगी हो तो अपने फ़ोन में नंबर 3 दबाकर अपनी बात ज़रूर रिकॉर्ड करें।

"लॉकडाउन का एक साल; हम श्रमिकों को रहेगा याद" कार्यक्रम की नयी कड़ी- "लॉकडाउन की तस्वीरें" में आप सभी का स्वागत है। साथियों, दरअसल इन तस्वीरों के जरिए हम आपको कोरोना-संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन में पैदा हुए भयावह हालातों से एक बार फिर रूबरू कराना चाहते हैं। उस लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों की बदहाली और दुर्दशा का मंजर भला कौन भूल सकता है! अचानक दिए गए एक आदेश के बाद जब सबकुछ एक झटके में ठहर गया, तब विभिन्न राज्यों और शहरों में मेहनत-मजदूरी कर अपनी आजीविका चला रहे लाखों-करोड़ों प्रवासी श्रमिक ऑटो, मोटरसाइकिल, रिक्शा और जिनके पास कोई साधन नहीं था, वे पैदल ही हजारों मील की दूरी भूखे-प्यासे, नंगे पावों से नापने का जज़्बा लिए अपने-अपने घरों को निकल पड़े। उन कठिन परिस्थितियों में शुरू की गयी इन दुर्गम यात्राओं के दौरान भूख-प्यास और बीमारी के कारण कई लोग बीच रास्ते में ही असमय काल-कवलित भी हो गए। मज़दूरों को याद कर आज भी रात-रात भर नींद नहीं आती। इस वैश्विक आपदा के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों में घटी इन भयावह घटनाओं को भला हम कैसे भुला सकते हैं? साथियों, क्या आपको ऐसा लगता है कि इस महामारी के बाद प्रवासी मजदूरों पर आए इस भीषण संकट के बाद भी क्या हमारा देश कोई सबक सीख पाया है? क्या आपको इस गुजरे वर्ष में मज़दूरों की स्थिति में कोई बदलाव दिखलायी दे रहा है? इस लॉकडाउन की सबसे अधिक मार उन प्रवासी मजदूरों पर पड़ी, जो अपना घर-परिवार छोड़कर बड़े शहरों में अपना और अपने परिवार के बेहतर भविष्य की उम्मीदों के साथ काम करने आए थे। लेकिन अचानक हुए लॉकडाउन के चलते बिना किसी सुविधा के, तमाम कठिनाइयों को झेलते हुए उन्हें अपने घर लौटने को मजबूर होना पड़ा। कोरोना-संक्रमण के चलते हुए सम्पूर्ण लॉकडाउन ने कारोबार चौपट करने के साथ ही मानव-सभ्यता के इतिहास में भी काले अध्याय के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इस वैश्विक महामारी से उपजे दुष्कर हालात में भारत ने आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा पलायन देखा। इस आपदा के एक साल गुजरने और परिस्थितियों के थोड़ा सामान्य होने पर हमारे श्रमिक साथी काम की तलाश में एक बार फिर उन्हीं फैक्ट्रियों-कारखानों में लौट आए हैं या लौट रहे हैं, जिन्होंने उस आपदा के दौरान उनकी कोई भी मदद करने से इनकार करते हुए, उन्हें उनके हालात पर संघर्ष करने को छोड़ दिया। लेकिन अपने हालातों से किये गए इन तमाम समझौतों के बाद भी उनकी परेशानियां हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं और साथ ही हमारे श्रमिक साथी आज भी नहीं भूल पा रहे उन गुजरे दिनों के दौरान अपने ऊपर गुजरी उन मुसीबतों को। साथियों, आप भी हमें बताएं कि इस गुजरे साल के बाद भी क्या प्रवासी श्रमिकों की जिंदगी अब दुबारा पटरी पर लौट गयी है? लॉकडाउन के दौरान आपके साथ गुजरी अच्छी-बुरी घटनाओं और यादों को हमारे साथ जरूर साझा करें

पंचायत चुनाव को लेकर गांव - गांव तक चहलकदमी बढ़ गई है। हर पंचायत में इस बार पंचायत चुनाव की सरगरमी कुछ ज्यादा ही है। श्रमिक साथी रोजगार पर चर्चा तो कर ही रहे है और साथ ही वे यह भी आत्ममंथन करने में लगे है कि कैसा हो अपना मुखिया? श्रमिक साथियों का कहना है कि पंचायत का मुखिया समाज के सभी वर्ग को लेकर चलने वाला होना चाहिए।साथ ही कृषि,सिंचाई,सड़क,बिजली,पानी,नाला,शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में सही विकास हो। तो साथियों,अभी आप हमें बताएं कि क्या लॉकडाउन के बाद जब आप गांव में थे तो क्या आपको गांव की सरकार से किस तरह की सुविधा मिली थी? आपके अनुसार आपका मुखिया कैसा होना चाहिए ?