बिहार राज्य के समस्तीपुर जिला से हमारे श्रोता मोबाइल वाणी के माध्यम से बता रहे मजदुर अपना घर छोड़ कर दूसरे जगह काम करने जाते हैं लेकिन उन्हें सही वेतनमान नहीं मिलता है

हमारे लिए रोजी-रोटी चुनाव से अधिक आवश्यक मोतिहारी लोकसभा क्षेत्र में करीब एक माह बाद छठे चरण में 25 मई को मतदान होना है। शहर-बाजार के चौक-चौराहे से लेकर गांव के खेत-खलिहान तक हर तरफ चुनावी चर्चा शुरू हो गयी है। इस चुनावी माहौल के बीच प्रवासी मजदूरों का जत्था रोजी-रोटी की तलाश में प्रदेश जाने को मजबूर हैं। इन प्रवासियों के मन मे वोटिंग की इच्छा तो है, परन्तु कंपनी द्वारा दूसरे मजदूर को काम पर रख लेने की स्थिति में रोजी छूटने के डर से काम पर लौटने की मजबूरी है। वोटिंग की लालसा पर रोजी छूटने का भय भारी पड़ रहा है। शुक्रवार दोपहर एक बजे के करीब बापूधाम मोतिहारी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर दो पर सप्तक्रांति एक्सप्रेस के इंतजार में बैठे कल्याणपुर के मनोज महतो कहते हैं कि वोट और रोजगार दोनों जरूरी है। हमारे वोट से ही मजबूत सरकार बनेगी। चुनाव के मौके पर घर पर रहने की इच्छा तो बहुत थी, लेकिन कंपनी का ठीकेदार बारबार काम पर लौटने के लिए फोन कर रहा है, जिसके चलते उनको बाहर जाना पड़ रहा है। पीपरा के पिंटू कुमार कहते है कि होली में बड़ी मुश्किल से घर आये थे। परिवार जनों के साथ त्योहार मना कर काम पर वापस लौट रहे हैं। देश तरक्की कर रहा है, पर अपने यहां रोजी-रोजगार का अभाव है। अगर अपने यहां भी रोजगार मिलने लगे तो कोई भी प्रवासी बाहर जाना नहीं चाहता। भारत इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियर तुरकौलिया के उदय कुमार कहते हैं कि उनकी तो परमानेंट ड्यूटी है। होली के मौके पर घर आये थे। वैलेट पेपर से मतदान के लिए अप्लाई किया है। कहते हैं कि मौका मिला तो आधुनिक भारत के लिए वोट जरूर करेंगे। जमशेदपुर के लिए टिकट कराने आये गायघाट के राजीव रंजन कहते है कि स्वच्छ छवि के उम्मीदवार को वोट करेंगे। मलाही के बिलटू सहनी ने कहा कि रोजी-रोजगार की मजबूरी है, नहीं तो वे भी चुनाव बाद ही बाहर जाते। संग्रामपुर के दिनेश कुमार दिल्ली की एक प्रतिष्ठित कंपनी में चार वर्ष से काम कर रहे हैं। कम्पनी से फोन आने के बाद काम पर लौट रहे है। अगर कंपनी से पांच दिन की छुट्टी मिल जाएगी, तो वोट करने जरूर आएंगे। कोटवा के अशोक महतो गाजियाबाद की एक फैक्ट्री में मजदूरी करते है। कहते है कि मजबूरी है काम पर वापस जाना पड़ रहा है। अगर गांव पर रहता तो वोट देने जरूर जाता। बहरहाल प्रवासियों के वोटिंग की इच्छा पर रोजी-रोटी की तलाश भारी पड़ती नजर आ रही है।

मनरेगा में भ्रष्टाचार किसी से छुपा हुआ नहीं है, जिसका खामियाजा सबसे ज्यादा दलित आदिवासी समुदाय के सरपंचों और प्रधानों को उठाना पड़ता है, क्योंकि पहले तो उन्हें गांव के दबंगो और ऊंची जाती के लोगों से लड़ना पड़ता है, किसी तरह उनसे पार पा भी जाएं तो फिर उन्हें प्रशासनिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस मसले पर आप क्या सोचते हैं? क्या मनरेगा नागरिकों की इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम हो पाएगी?

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