कोरोना-संकट ने दुनिया की बढ़ती अर्थव्यवस्था को रोक दिया है और कई देश तो कई साल पीछे हो गए हैं । जहाँ एक तरफ उद्योग-धंधे कोरोना की मार से अभी तक उबर नहीं पाए हैं, वही दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ने से लोगों की क्रय शक्ति कमजोर हुई है और इस कारण बाज़ार में माँग में कमी आयी है, माँग में कमी आने से उत्पादन घटा है और उत्पादन घटने से कम्पनियों/फैक्ट्रियों को हो रहे नुक़सान का सीधा नकारात्मक असर इनमें काम करने वाले श्रमिकों पर पड़ा है। अपने हुए नुक़सान की भरपायी करने के लिए वे मनमाने तरीक़े से इन श्रमिकों का वेतन कम करने से लेकर इनको नौकरी से निकाले जाने तक के हथकंडे अपना रही हैं, जिसके कारण श्रमिकों के जीवन पर संकट आ खड़ा हुआ है .

नमस्कार साथियों। मैं श्वेता आज फिर हाज़िर हूँ आपके बीच "टार्गेट पूरा न कर पाने पर कम्पनियाँ मनमाने तरीक़े से निकाल देती हैं श्रमिकों को" विषय पर अपने श्रमिक साथियों की राय-प्रतिक्रिया के साथ। हम श्रमिक अपनी कम्पनी के लिए दिन-रात एक कर, बिना समय की परवाह किए, अपनी जान दांव पर लगाकर काम करते हैं, जिससे कम्पनी को मुनाफ़ा हो और उस मुनाफ़े से मिलने वाले पारिश्रमिक से हमारी रोज़ी-रोटी चल सके। लेकिन जब कभी किसी कारणवश या टार्गेट बहुत अधिक होने के कारण हम उसे पूरा नहीं कर पाते, तो कम्पनियाँ बिना हमारा पक्ष सुने टार्गेट पूरा न होने का ज़िम्मेदार मानकर मनमाने तरीक़े से हमें निकाल देती हैं।जिन श्रमिकों के बूते इन कम्पनियों का काम चलता है और इनके मालिक ऐशो-आराम की ज़िंदगी जीते हैं, उन्हीं श्रमिकों के साथ कम्पनियों का यह रवैया क्या सही है? साथियों इस विषय पर आपका क्या कहना है? क्या आपको भी लगता है कि कम्पनियों की इस मनमानी को रोकने की ज़रूरत है और उसे रोकने के लिए हम श्रमिक साथियों को संगठित होने की ज़रूरत है! साथ ही हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से अगर आपके दैनिक कामकाजी जीवन में कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा हो, आपको कुछ करने की प्रेरणा मिलती हो और आप अपने कार्यस्थल पर हो रहे श्रमिक-विरोधी कृत्यों के ख़िलाफ़ संगठित होकर आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित होते हैं

लॉकडाउन का खेल ख़त्म हो चुका है और मानवता, मानवता चिल्लाने वाले नेताओं में कमी आयी है। अर्थव्यवस्था को बजाने और मजदूरों को खपाने के लिए वैक्सीन तैयार हो चुकी है। हालांकि चुनावी वैक्सीन,चुनावी रैलियों में आये लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने में काफ़ी सफल साबित हुई है। आंदोलनों,धरनों और रैलियों का सिलसिला पिछले साल की तरह नये मुददों के साथ फिर से शुरू हो गया है। लाखों की संख्या में किसानों के रूप में बैठी मानवता कॉम्पनियों के मज़दूर बनने को तैयार नहीं हैं| कॉम्पनियाँ की सरकारें इंसान को मज़दूर बनाने में पूरी तरह फेल हो होती जा रही हैं| कोरोना से संक्रमित व्यक्तियों से कहीं ज़्यादा बेरोज़गारों का संक्रमण बढ़ता जा रहा है जो कॉम्पनियों और उनकी सरकारों के लिए बड़ी मुसीबत है और उधर कंपनियों में छटनियों का दौर चालू है बेरोजगारी आन्दोलनों और धरनों का रूप धारण करती जा रही है। जहाँ दुनिया भर की कॉम्पनियों की सरकारें यह मान चुकी हैं कि मजदूरी कराना अब आसान नहीं रहा है दुनिया भर में गिरती अर्थव्यवस्था और बदलते श्रम कानून इस बेचैनी का जीता जागता सबूत हैं| जहां परत दर परत मज़दूरों की निगरानी में खपती पूँजी सरमायेदारों की नींद हराम किये हुए है जिसको हम मज़दूरों की रोती गाती तस्वीरों के ज़रिये छुपाने की कोशिश की जा रही है सख़्त से सख़्त क़ानून बनाने के बाद भी पूंजीवादी व्यवस्थाओं का सिंघासन डामाडोल है| लोगों का व्ययस्थाओं पर बढ़ता गुस्सा और मजदूरों की मेहनत की लूट, कॉम्पनियों और उनकी सरकारों पर भारी पड़ रही है| हाल ही में बैंगलुरु के पास स्थित कोलार जिले के नरसापुरा औधोगिक इलाके में आईफोन कॉम्पनी में काम कर रहें हजारों मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा| मज़दूर साथियों का दावा हैं कि चार महीने से कॉम्पनी मज़दूरों के वेतन में कटौती कर रही थी और शिकायत पर मैनेगमेंट चुप्पी साधे रहा| जिसका नतीजा यह हुआ कि हिंसक प्रदर्शन में कॉम्पनी का 437 करोड़ का नुकसान हो गया है हालांकि नुकसान के आंकड़ों पर अभी मतभेद है| कुछ मज़दूर साथी इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि कॉम्पनियाँ इंसानों को मशीन समझती हैं इनके मालिकों को पैसे के फ़ायदे और नुकसान की ही भाषा समझ आती है| कॉम्पनी का नुकसान होने पर फौरन हिसाब सामने आ गया लेकिन मजदूरों के पैसे का हिसाब सकड़ों साल तक सामने नहीं आता है| न जाने कितनी हीं कॉम्पनियाँ और ठेकेदार हम मजदूरों का कितना पैसा मारकर बैठें हैं जिसका आज तक कोई हिसाब नहीं हैं|

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श्रमिकों को ओवर टाइम के पारिश्रमिक का भुगतान किए बिना अतिरिक्त काम करवाना गलत है, लेकिन साझा मंच पर हमारे श्रोताओं का कहना है कि कंपनी अतिरिक्त काम तो करवाती है, लेकिन उसके अनुसार निर्धारित पैसे नहीं देती, यानि उन्हें ओवर टाइम का लाभ नहीं मिलता

सरकार सिर्फ पूंजीपतियों के लिए ही बानी है। श्रमिक कल भी संघर्ष कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं। न्यूनतम वेतन ना मिलना तो अब आम समस्या बन गयी है । श्रमिक संगठन भी कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। आज भी दिल्ली जैसे शहर में बहुसंख्यक पुरुष और महिलाएं गांव से आकर कार्य करते हैं। क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है

आज हम बात करेंगे आपसे जुलाई, 2009 में बी 134, ओखला, फ़ेज़ 1, दिल्ली स्थित वीयरवेल कम्पनी में हो रहे श्रमिकविरोधी कृत्यों के ख़िलाफ़ श्रमिकों के संगठित विरोध और काम बन्द करने की धमकी के बाद घुटनों पर आए कम्पनी-प्रबंधन के द्वारा सुलहनामे पर तैयार होने की..ऑडियो पर क्लिक कर सुनें पूरी खबर..

एक बार फिर हम हाज़िर है आपके साथ "नए श्रम कानूनों के ऊपर श्रमिक साथियों की राय एवं प्रतिक्रिया लेकर । जहाँ लॉक डाउन लागू होने से श्रम संकट गहरा गया और पूंजीपतियों को मज़दूरों की कमी से आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। इसके लिए अब सरकार अर्थव्यवस्थाओं को फिर से पटरी पर लाने के लिए श्रम कानूनों में बदलाव किए, लेकिन मजदूर और मजदूर संघ इन बदलावों की खुली मुखालफत कर रहे हैं। श्रमिक का कहना है कि कानून अंधा होता है, इस बदलाव से श्रमिकों को ना तो कोई फायदा होने वाला है और ना ही कोई फर्क पड़ने वाला है। पूंजीपतियों को आगे बढ़ाने के लिए ही श्रम कानूनों में बदलाव किए गए हैं? सरकार नए श्रम कानूनों के सहारे श्रमिकों को कमजोर और पूंजी को मजबूत करना चाहती है।तो साथियों, इन नए श्रम कानूनों पर आपका क्या कहना है? अपना विचार हमसे ज़रूर साझा करें फोन में नंबर तीन दबाकर, धन्यवाद।

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आज हम बात करेंगे आपसे मानेसर के मारूति सुज़ुकी अलाइड निप्पोन में जनवरी 2012 में आग लगने से जले श्रमिक की मज़दूरी और इलाज सहित अन्य सुविधाओं के भुगतान हेतु साथी श्रमिकों के सफल एकजुट प्रयास की। अलाइड निप्पोन में ठेकेदार के द्वारा नियुक्त एक श्रमिक के आग लगने के कारण जल जाने पर कम्पनी ने उसे अलियर के सपना नर्सिंग होम में इलाज हेतु भर्ती कराकर डॉक्टर से शाम को डिस्चार्ज करने के लिए कह दिया। इसपर जले श्रमिक ने अलाइड निप्पोन के अपने साथी श्रमिक से उसे इसी नर्सिंग होम में रखने को कहा। अगले दिन मारूति सुज़ुकी प्लांट में ठेकेदार के द्वारा नियुक्त दस-पंद्रह श्रमिक उसे देखने गए और डॉक्टर से कहा कि इलाज करो, अगर कम्पनी पैसे नहीं देगी तो हम देंगे। काम के दौरान जले श्रमिक को देखने अगले दो दिनों तक कम्पनी का कोई अधिकारी नहीं आया, बस साथी श्रमिक आते रहे। अलाइड निप्पोन के प्रोडक्शन मैनेजर को कॉल करने पर उसने झूठ बोल दिया की किसी श्रमिक के जलने की उसे कोई जानकारी नहीं है। अगले दिन डॉक्टर ने पैसे नहीं देने पर ईएसआई भेजने की बात कही। इतना सुनते ही श्रमिक साथियों के द्वारा किए गए फ़ोन काल्स के परिणामस्वरूप आधे घंटे के भीतर ही मारूति सुज़ुकी के प्रेस शॉप, असेम्बली, पेंट शाप, वेल्ड शाप आदि विभागों तथा सुज़ुकी पावर ट्रेन के अलियर व ढाणा में रह रहे दकेदारों के द्वारा नियुक्त सत्तर-अस्सी श्रमिक नर्सिंग होम पर एकत्र हो कर वहाँ से अलाइड निप्पोन फ़ैक्ट्री पहुँचे, लेकिन कम्पनी प्रबंधक ने श्रमिकों से बात करने से भी मना कर दिया। लगभग आधे घंटे बाद जले श्रमिक की नियुक्ति करने वाली ठेकेदार कम्पनी का सुपरवाइज़र आया और उससे बातचीत में तय हुआ कि नर्सिंग होम के खर्च और उपचार के दौरान बैठे दिनों के पैसे उस घायल श्रमिक को दिए जाएँगे तथा उसके घरवालों को कॉल कर बुलाया जाएगा। अगले दिन जले श्रमिक को सेक्टर तीन स्थित ईएसआई अस्पताल ले जाकर भर्ती किया गया। वहाँ ईएसआई कार्ड माँगने पर सुपरवाइज़र ने दो घंटे का समय माँगा और 12/12/2010 से काम कर रहे उस श्रमिक ईएसआई कार्ड 16/01/2012 को बनवाया और उसकी दुर्घटना रिपोर्ट भी भरी। इसके तुरंत बाद ही घायल श्रमिक के पिता भी गाँव से आ गए। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि अलाइड निप्पोन फ़ैक्ट्री में जला श्रमिक दुर्गेश बांसगांव में किराए पर रहता था तथा मारूति सुज़ुकी और सुज़ुकी पावरट्रेन के इस संदर्भ में कदम उठाने वाले श्रमिक अलियर तथा ढाणा में किराए पर रहते थे और उनमें से किसी का भी दुर्गेश से कोई परिचय नहीं था। लेकिन पिछले छः महीनों के दौरान कम्पनी-प्रबंधन के द्वारा श्रमिक-हितों को नुक़सान पहुँचाने वाले लिए गए कई निर्णयों ने श्रमिकों की भावनाओं को उभारा और उनमें संगठन की प्रवृत्ति को प्रेरित किया, जिसका सुखद परिणाम हमें दुर्गेश के साथ काम के दौरान हुई दुर्घटना के सम्बंध में देखने को मिला और इससे ये साबित हो गया कि श्रमिक अगर संगठित हो जाएँ तो कोई भी ताक़त उनकी संगठन शक्ति के आगे कमजोर साबित होती है और वे अपना हक़ प्राप्त कर सकते हैं। श्रोताओं! कैसी लगी आज की जानकारी? आप अपना अनुभव हमारे साथ ज़रूर साझा करें, अपने मोबाइल में नम्बर तीन दबाकर, धन्यवाद।