-भारी नुकसान के बाद, गारमेंट हब का तमिलनाडु सरकार को संदेश- प्रवासियों की लगातार आवाजाही रुकनी चाहिए -पोलैंडः पैरोक प्लांट के कर्मचारियों को एक सप्ताह की हड़ताल के बाद जीत मिली

आज हम बात करेंगे उन मजदूर श्रमिकों की जो काम की तलाश में बीते कई महीनों से इधर उधर भटक रहे हैं, हम बात उनकी भी करेंगे जिन्हें काम से निकाल दिया गया है। लॉकडाउन के चलते इन कंपनियों ने घाटे का हवाला देते हुए मजबूरों की संख्या कम कर दी, उनकी तनख्वाह घटा दी। कुछ कम्पनियों ने तो अपने मजदूरों की संख्‍या इसलिए भी घटा दी ताकि कम मजदूरों से ज़्यादा उत्पादन करवाया जा सके। कई कंपनियां तो ऐसी भी थीं जिन्‍होंने कर्मचारियों को अनिश्चितकालीन छुट्टी पर भेज दिया यानि उन्हें बिना बताये काम से निकाल दिया. ऐसे हालातों में मजदूरों के मन में अपने भविष्य को लेकर निराशा के कई सवाल उठ रहे हैं? लाखों की संख्या में मजदूर पलायन करके अपने गांव आ गए हैं क्योंकि जिस शहर में वो वर्षों से मजदूरी करके गुजारा कर रहे थे आज उस शहर में सन्नाटा पसरा है। देश में कोरोना की दूसरी लहर ने तबाही मचा दी है, महाराष्ट्र जैसे राज्य में मिनी लॉक डाउन लग चुका है, वहां से पलायन शुरू हो गया है। ऐसी आशंका जताई जा रही है अगर जल्द ही हालात कण्ट्रोल में नहीं हुए तो पूरे देश में फिर से लॉकडाउन लग सकता है।मजदूर इस भय से जी रहे हैं कि अगर दोबारा लॉकडाउन लग गया तो वो फिर खाने को मजबूर हो जाएंगे। पिछले वर्ष लॉक डाउन की स्थिति में सरकार ने दावा किया था कि किसी भी कर्मचारियों के वेतन की कौटती नहीं की जाएगी, कर्मचारियों की छटनी नहीं होगी, नौकरी से नहीं निकाला जाएगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कंपनियों ने लगातार श्रमिकों की छटनी की और अभी भी कर रही है। श्रमिक वर्ग अभी भी काम की तलाश में भटक रहे हैं। साथियों,तो हम आपसे जानना चाहते हैं कि सरकार ने जो बड़े बड़े वादे किए थे क्या उसका लाभ आपको मिला? सरकार के दावों की धरातल पर क्या स्थिति है? आप मुझे अपने या अपने आसपास की जमीनी सच्चाई बताएं जिससे हम जान सकें कि बड़े- बड़े वायदों की सच्चाई क्या है?आप हमें बताएं कि लॉकडाउन ने, आपके काम को किस प्रकार प्रभावित किया है ? पिछले एक वर्ष में आपके काम में किस प्रकार के बदलाव हुए हैं? क्या आपकी कम्पनी में कोरोना महामारी के कारण श्रमिकों की छटनी हुई है? अगर हाँ, तो आपने इसके लिए क्या प्रयास किये? इन सभी सवालों पर अपने विचार अपने फोन में नंम्बर तीन दबाकर ज़रूर रिकॉर्ड करें।

असल में कोरोना महामारी के कारण मार्च 2020 में लागू किये गए लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा। रोज कमाकर अपना पेट पालने वाले इन मजदूरों को लॉकडाउन की घोषणा के बाद संभलने का मौका ही नहीं मिला। वो जिन ठेकेदारों, कंपनियों, दफ्तरों और लोगों के सहारे थे उन सबने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था। बीमारी की दहशत, काम बंदी, भुखमरी का डर और लॉकडाउन के शुरुआत में पुलिस की सख्ती के चलते प्रवासी मजदूरों के सामने ऐसे हालात पैदा हो गए कि उन्हें हजारों किलोमीटर दूर पैदल सफर कर अपने गांव लौटना पडा। पैदल मीलों लंबा सफर तय करने में इन मजदूरों को महीनों लग गए, कई मुश्किलों का सामना करते हुए वे अपने गांव पहुंचे. कई तो ऐसे भी थे जिनका सफर अधूरा ही रह गया. बहुत से मजदूर सडक हादसों का शिकार हुए और कुछ को मौसम की मार और बीमारी ने मार डाला. हालांकि मजदूरों के दर्द को सुप्रीम कोर्ट ने समझा और आदेश दिया कि 15 दिन के अंदर सभी राज्यों से प्रवासियों की सुरक्षित वापसी कराई जाए। यह कदम तत्काल उठाया गया लेकिन जैसे तैसे अपने घर पहुंचे मजदूरों को उनके ही अपनों ने दुत्कार दिया. संक्रमण के डर से मजदूरों को गांव के बाहर ही प्रवास करने पर मजबूर किया गया. इसके बाद मजदूरों को काम देने के लिए केन्द्र सरकार ने मनरेगा के फंड में इजाफा किया. पर जब मुख्य बजट की बात आई तो मनरेगा के नाम पर सरकार ने हाथ खडे कर लिए. गांव में काम नहीं होने के कारण जो मजदूर दोबारा शहर आए थे उन्हें यहां भी काम नहीं मिल रहा है. ऐसे में वे दोबारा गांव की ओर पलायन कर रहे हैं. हम आपसे जानना चाहते हैं कि सरकार ने मनरेगा के फंड में कटौती कर मजदूरों के साथ छल किया है? क्या आपको नहीं लगता कि सरकार के इस फैसले से मजदूरों के हालात बदत्तर हो रहे हैं? लॉकडाउन के बाद आई बेरोजगारी से मजदूर साथी कैसे निपट रहे हैं?

"लॉकडाउन का एक साल; हम श्रमिकों को रहेगा याद" कार्यक्रम की नयी कड़ी- "लॉकडाउन की तस्वीरें" में आप सभी का स्वागत है। साथियों, दरअसल इन तस्वीरों के जरिए हम आपको कोरोना-संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन में पैदा हुए भयावह हालातों से एक बार फिर रूबरू कराना चाहते हैं। उस लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों की बदहाली और दुर्दशा का मंजर भला कौन भूल सकता है! अचानक दिए गए एक आदेश के बाद जब सबकुछ एक झटके में ठहर गया, तब विभिन्न राज्यों और शहरों में मेहनत-मजदूरी कर अपनी आजीविका चला रहे लाखों-करोड़ों प्रवासी श्रमिक ऑटो, मोटरसाइकिल, रिक्शा और जिनके पास कोई साधन नहीं था, वे पैदल ही हजारों मील की दूरी भूखे-प्यासे, नंगे पावों से नापने का जज़्बा लिए अपने-अपने घरों को निकल पड़े। उन कठिन परिस्थितियों में शुरू की गयी इन दुर्गम यात्राओं के दौरान भूख-प्यास और बीमारी के कारण कई लोग बीच रास्ते में ही असमय काल-कवलित भी हो गए। मज़दूरों को याद कर आज भी रात-रात भर नींद नहीं आती। इस वैश्विक आपदा के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों में घटी इन भयावह घटनाओं को भला हम कैसे भुला सकते हैं? साथियों, क्या आपको ऐसा लगता है कि इस महामारी के बाद प्रवासी मजदूरों पर आए इस भीषण संकट के बाद भी क्या हमारा देश कोई सबक सीख पाया है? क्या आपको इस गुजरे वर्ष में मज़दूरों की स्थिति में कोई बदलाव दिखलायी दे रहा है? इस लॉकडाउन की सबसे अधिक मार उन प्रवासी मजदूरों पर पड़ी, जो अपना घर-परिवार छोड़कर बड़े शहरों में अपना और अपने परिवार के बेहतर भविष्य की उम्मीदों के साथ काम करने आए थे। लेकिन अचानक हुए लॉकडाउन के चलते बिना किसी सुविधा के, तमाम कठिनाइयों को झेलते हुए उन्हें अपने घर लौटने को मजबूर होना पड़ा। कोरोना-संक्रमण के चलते हुए सम्पूर्ण लॉकडाउन ने कारोबार चौपट करने के साथ ही मानव-सभ्यता के इतिहास में भी काले अध्याय के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इस वैश्विक महामारी से उपजे दुष्कर हालात में भारत ने आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा पलायन देखा। इस आपदा के एक साल गुजरने और परिस्थितियों के थोड़ा सामान्य होने पर हमारे श्रमिक साथी काम की तलाश में एक बार फिर उन्हीं फैक्ट्रियों-कारखानों में लौट आए हैं या लौट रहे हैं, जिन्होंने उस आपदा के दौरान उनकी कोई भी मदद करने से इनकार करते हुए, उन्हें उनके हालात पर संघर्ष करने को छोड़ दिया। लेकिन अपने हालातों से किये गए इन तमाम समझौतों के बाद भी उनकी परेशानियां हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं और साथ ही हमारे श्रमिक साथी आज भी नहीं भूल पा रहे उन गुजरे दिनों के दौरान अपने ऊपर गुजरी उन मुसीबतों को। साथियों, आप भी हमें बताएं कि इस गुजरे साल के बाद भी क्या प्रवासी श्रमिकों की जिंदगी अब दुबारा पटरी पर लौट गयी है? लॉकडाउन के दौरान आपके साथ गुजरी अच्छी-बुरी घटनाओं और यादों को हमारे साथ जरूर साझा करें

कोरोना-संकट ने दुनिया की बढ़ती अर्थव्यवस्था को रोक दिया है और कई देश तो कई साल पीछे हो गए हैं । जहाँ एक तरफ उद्योग-धंधे कोरोना की मार से अभी तक उबर नहीं पाए हैं, वही दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ने से लोगों की क्रय शक्ति कमजोर हुई है और इस कारण बाज़ार में माँग में कमी आयी है, माँग में कमी आने से उत्पादन घटा है और उत्पादन घटने से कम्पनियों/फैक्ट्रियों को हो रहे नुक़सान का सीधा नकारात्मक असर इनमें काम करने वाले श्रमिकों पर पड़ा है। अपने हुए नुक़सान की भरपायी करने के लिए वे मनमाने तरीक़े से इन श्रमिकों का वेतन कम करने से लेकर इनको नौकरी से निकाले जाने तक के हथकंडे अपना रही हैं, जिसके कारण श्रमिकों के जीवन पर संकट आ खड़ा हुआ है .

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लॉकडाउन के बाद अपने गृह राज्यों में तीन करोड़ आंतरिक प्रवासियों के साथ, सवाल यह है कि उनमें से कितने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए जीविकाएँ पाएंगी और कितने लोग वापस आएंगे और कितने वेतन पर आएंगे? इस महामारी दौर में भारत के साथ-साथ बांग्लादेश से आए प्रवासियों को रोजी-रोटी का भारी नुकसान हुआ है। प्रवासी कामगारों के लिए एक प्रमुख गंतव्य ईरान की... खाड़ी देश है।भारत और बांग्लादेश कुछ लोगों को वापस लाने में मदद कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अक्टूबर में विधानसभा चुनावों के लिए कमर कसते हुए, बिहार सरकार ने कई वर्षों से मतदाता सूची से हटने वाले प्रवासियों को पंजीकृत करने के लिए एक अभियान शुरू किया है। ऑडियो पर क्लिक कर सुनें पूरी ख़बर...

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साझा मंच की टीम 11 जून को तिरूपुर में सिडको औद्योगिक क्षेत्र पहुंची थी. जहां प्रवासी और स्थानीय श्रमिकों के बीच हिंसा की दुखद घटनाओं की जानकारी मिली. आज हम आपके साथ लक्ष्मण से हुई बातचीत साझा कर रहे हैं. लक्ष्मण वह श्रमिक है जो ऐसी ही हिंसा का शिकार हुआ और तिरुपुर जनरल अस्पताल के आईसीयू में जिंदगी और मौत से जूझते हुए आखिर वह अपनी आखिर जंग हार गया. उसके दुनिया से अलविदा करने से पहले कुछ क्षण हमें मिले थे, जिसमें हमने उससे बात की. ये बातें वहां रहने वाले प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं पर रौशनी डालती हैं. लक्ष्मण नौ माह पहले अपने परिवार, गांव और रिश्तों को छोडकर तिरुपुर में काम की तलाश में आया था. यहां उसे दर्जी का काम मिला. जिससे वह 5 हजार रूपए मासिक कमाई करने लगा. हालांकि यह कमाई न्यूनतम मजदूरी से भी कम थी पर उसे आय की जरूरत थी. इस कमाई से वह अपने रहने, खाने का खर्च चुकाता था. बचे हुए कुछ पैसे परिवार को भेजता था, ताकि वहां उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके. लेकिन फिर क्या हुआ लक्ष्मण के साथ आइए सुनते हैं...अचानक बढ़े तनाव के बाद उड़िया लड़के मौके से भाग गए. लेकिन 3 तमिल लड़के उनके पीछे ही पड़े रहे. इन लड़कों की नजर लक्ष्मण पर पड़ी. उन्होंने उसे पकड़ा और बुरी तरह पीटा. वह अपनी जान बचाने की कोशिश करता रहा, मदद की गुहार लगाता रहा लेकिन उसे कोई बचाने नहीं आया. जब पीटने वाले वहां से भाग गए तब लक्ष्मण के दोस्त वहां पहुंचे. उसकी गंभीर हालत देखकर तत्काल अस्पताल पहुंचा...इस पूरी वारदात के वक्त भले ही कोई साथ नहीं आया पर बाद में पुलिस ने आरोपी 3 तमिल लड़कों को गिरफ्तार कर लिया. साझा मंच के स्थानीय साझेदार टीआरएलएम सीटीयू ने जिला कलेक्टर के पास इस मामले के संबंध में एक याचिका दायर की. जिसमें मांग की गई की लक्ष्मण को तत्काल इलाज के लिए मदद दी जाए साथ ही उसकी सुरक्षा की व्यवस्था भी हो. याचिका में यह भी बताया गया कि लक्ष्मण अकेला ऐसा श्रमिक नहीं है जो इस वारदात का शिकार हुआ है बल्कि हर रोज जाने कितने ही प्रवासी श्रमिक हैं जो स्थानीय लोगों के विरोध का सामना कर रहे हैं. यहां सबसे बडी दिक्कत भाषा की है. प्रवासी अपनी शिकायत अपनी भाषा में करना चाहते हैं लेकिन शिकायत विभाग तमिल भाषा को महत्व देता है. इसलिए अधिकांश शिकायतें तो दर्ज ही नहीं होती. याचिका में मांग की गई है कि प्रवासी श्रमिकों के लिए कलेक्टर कार्यालय में एक विशेष शिकायत प्रकोष्ठ बनाया जाए, जहां प्रवासी अपनी भाषा में अपनी तकलीफ बयां कर सकें. कलेक्टर ने इस मसले पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने आश्वासन दिया है कि स्थानीय सरकार प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा पर ज्यादा सजगता से ध्यान देगी. हालांकि यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि सरकार अपने दावों पर कितना खरा उतरती है लेकिन फिलहाल आप हमें बताएं कि घर से दूर काम की तलाश में आए इन मजदूरों का आखिर कसूर क्या है? यदि आप भी प्रवासी श्रमिक हें तो अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें. यदि आपने भी ऐसी को तकलीफ भोगी है तो अपने दूसरे प्रवासी श्रमिक साथियों के साथ उसे बांटे. हम सबको मिलकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठानी होगी. हमारी एकजुटता ही हमारा भविष्य तय करेगी. अपनी राय हमें जरूर बताएं नम्बर तीन दबाकर

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