-भारी नुकसान के बाद, गारमेंट हब का तमिलनाडु सरकार को संदेश- प्रवासियों की लगातार आवाजाही रुकनी चाहिए -पोलैंडः पैरोक प्लांट के कर्मचारियों को एक सप्ताह की हड़ताल के बाद जीत मिली

साथियों शहरों में बसावट की रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जो प्रवासी मज़दूर शहर छोड़ कर चले गए थे, वे फिर लौटने लगे हैं। क्योंकि गाँव में स्थिति और ख़राब है। वहाँ न तो मनरेगा का काम है और न ही कोई उद्योग धंधा। साथ ही अगर बीमार पड़े तो उसके लिए अस्पताल तक नहीं हैं। क्या सरकार का यह दायित्व नहीं है कि उन श्रमिकों को रोज़गार दे? साथियों,उद्योग क्षेत्र में काम मिल पाना तो बहुत ही मुश्किल है और साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी देने वाली योजना मनरेगा का हाल भी बुरा है। सरकार द्वारा ससमय मजदूरी भुगतान का दावा तो किया जाता है, लेकिन समय पर भुगतान कभी नहीं हो पता है। इससे मजदूरों की परेशानी और भी बढ़ जाती है। साथियों,अब हम आपसे जानना चाहते है कि क्या सरकार बेरोजगारी दूर करने के लिए कोई प्रयास कर रहीं है?क्या आपको लगता है कि सरकार सभी बेरोजगारों को नौकरी देने में सक्षम हो पायेगी ? अगर हाँ तो अब तक रोजगार मुहैया क्यों नही का पा रही है?अपनी बात बताने के लिए दबाएं नंबर तीन का बटन..

चुनावी रैलियों से कोरोना संक्रमण दूर करने का शोध समाप्त हो गया। प्रजातंत्र में तंत्र को बचाना प्रजा से ज़्यादा ज़रूरी हो गया जबकि मतदान का अधिकार छोड़कर प्रजाओं में कोई सामान्यता नहीं दिखी| कॉम्पनियों में खपने वाले मज़दूर और खपाने वाले पूंजीपतियों में से मज़दूर हमेशा की तरह प्रजातंत्र में प्रजा की ही श्रेणी में नज़र आया आये।

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वैसे तो देश में पूर्ण लॉकडाउन नहीं लगा है पर जिस तरह के हालात बने हुए हैं उनमें अधिकांश कारखाने बंद हैं. बहुत से दुकानदार कर्फ्यू के डर से दुकानें नहीं खोल रहे हैं. ये वही हालात हैं जो अब से कुछ माह पहले भी बनें थे. जब छोटे-छोटे बच्चों को कंधे पर बैठाएं लोग, बूढ़े मां-बाप को सहारा देकर पैदल या साइकिलों पर सवार किए हुए, अपने घरों की तरफ लौटती भीड़ को हम सबने देखा था. साथियों, हम ये बाते कर रहे हैं क्योंकि लॉकडाउन के पूरे एक साल बीत चुके हैं. उन्ही हालातों को समझने के लिए हम लेकर आए हैं अपना कार्यक्रम लॉक डाउन का एक साल- हम श्रमिकों को रहेगा याद की तीसरी कड़ी यानि काम पर वापसी. श्रोताओं, जब शहरों से लोग गांव पहुंचे थे तो उन्हें उम्मीद थी कि गांव में कुछ ना कुछ रोजगार मिल जाएगा पर उन्हे ना तो मनरेगा में काम मिला ना वे अपना व्यवसाय शुरू कर पाए. जो जमापूंजी थी वो भी खत्म होने लगी. जब कोई रास्ता नहीं मिला तो लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बिना फिर से शहरों की तरफ रूख किया. कुछ कंपनियां और कारखाने खुले तो उन्होंने मजदूरों को कम संख्या में ही सही पर काम पर बुला लिया और कुछ ने साफ इंकार कर दिया. जो मजदूर काम पर लौटे हैं वे पहले से भी बदत्तर हालात में हैं. जिन राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों को उनकी कुशलता के आधार पर काम देने का वायदा किया था वे पूरे नहीं हुए. साथियों,बहुत से श्रमिक भाईयों के साथ ये हालात बन गए कि उन्हें परिवार का भरण पोषण करने के लिए महंगे ब्याज पर कर्ज लेने की नौबत आ गई. जो कभी औरों को काम दिया करते थे वे अब खुद काम की तलाश में हैं. हम आपसे जानना चाहते हैं कि क्या आपको नहीं लगता कि राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों का बस इस्तेमाल किया? मजदूरों को रोजगार देने, कम दाम पर घर और अनाज देने का जो वायदा किया गया था वो उनके साथ एक और धोखा था? हम आपसे आपकी परिस्थितियों के बारे में जानना चाहते हैं. हमें बताएं कि दोबारा शहर लौटकर आप किन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं.

असल में कोरोना महामारी के कारण मार्च 2020 में लागू किये गए लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा। रोज कमाकर अपना पेट पालने वाले इन मजदूरों को लॉकडाउन की घोषणा के बाद संभलने का मौका ही नहीं मिला। वो जिन ठेकेदारों, कंपनियों, दफ्तरों और लोगों के सहारे थे उन सबने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था। बीमारी की दहशत, काम बंदी, भुखमरी का डर और लॉकडाउन के शुरुआत में पुलिस की सख्ती के चलते प्रवासी मजदूरों के सामने ऐसे हालात पैदा हो गए कि उन्हें हजारों किलोमीटर दूर पैदल सफर कर अपने गांव लौटना पडा। पैदल मीलों लंबा सफर तय करने में इन मजदूरों को महीनों लग गए, कई मुश्किलों का सामना करते हुए वे अपने गांव पहुंचे. कई तो ऐसे भी थे जिनका सफर अधूरा ही रह गया. बहुत से मजदूर सडक हादसों का शिकार हुए और कुछ को मौसम की मार और बीमारी ने मार डाला. हालांकि मजदूरों के दर्द को सुप्रीम कोर्ट ने समझा और आदेश दिया कि 15 दिन के अंदर सभी राज्यों से प्रवासियों की सुरक्षित वापसी कराई जाए। यह कदम तत्काल उठाया गया लेकिन जैसे तैसे अपने घर पहुंचे मजदूरों को उनके ही अपनों ने दुत्कार दिया. संक्रमण के डर से मजदूरों को गांव के बाहर ही प्रवास करने पर मजबूर किया गया. इसके बाद मजदूरों को काम देने के लिए केन्द्र सरकार ने मनरेगा के फंड में इजाफा किया. पर जब मुख्य बजट की बात आई तो मनरेगा के नाम पर सरकार ने हाथ खडे कर लिए. गांव में काम नहीं होने के कारण जो मजदूर दोबारा शहर आए थे उन्हें यहां भी काम नहीं मिल रहा है. ऐसे में वे दोबारा गांव की ओर पलायन कर रहे हैं. हम आपसे जानना चाहते हैं कि सरकार ने मनरेगा के फंड में कटौती कर मजदूरों के साथ छल किया है? क्या आपको नहीं लगता कि सरकार के इस फैसले से मजदूरों के हालात बदत्तर हो रहे हैं? लॉकडाउन के बाद आई बेरोजगारी से मजदूर साथी कैसे निपट रहे हैं?

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