हम अक्सर देखते और सुनते हैं कि देश के किसी ना किसी कोने में कोई ना कोई मजदूरों का संगठन अपनी मांगों को लेकर सरकार के विरोध में आंदोलन कर ही रहा होता है. कई बार ये विरोध कंपनियों के गैर जिम्मेदराना रवैए के खिलाफ भी होता है. कोलंबिया सरकार ने अपने प्रमुख कपड़ा और फुटवियर उद्योग में श्रमिकों के लिए न्यूनतम मासिक वेतन 2 अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 194 अमेरिकी डॉलर कर दिया. यह वेतन आने वाले साल के पहले माह से लागू हो जाएगा. हालांकिवहां के स्थानीय कर्मचारी संगठन इस बढोत्तरी को नाकाफी बता रहे हैं. तो दोस्तों, हमें बताएं कि आप अपने वर्तमान वेतन से कितना खुश हैं? क्या आपको नहीं लगता कि सरकार को न्यूनतम मजदूरी दर में इजाफा करने की जरूरत है? क्या आपने कभी अपनी कंपनी या फिर सरकार से वेतन में इजाफे की मांग की? अगर हां तो कैसे और फिर क्या हुआ?

-भारी नुकसान के बाद, गारमेंट हब का तमिलनाडु सरकार को संदेश- प्रवासियों की लगातार आवाजाही रुकनी चाहिए -पोलैंडः पैरोक प्लांट के कर्मचारियों को एक सप्ताह की हड़ताल के बाद जीत मिली

-अनुबंध वार्ता विफल होने के बाद 2,400 से अधिक खनिकों ने हड़ताल की -वॉरियर मेट में कोयला कर्मचारियों की हड़ताल को 2 महीने पूरे हुए

-दो साल के संघर्ष के बाद पेरिस के आईबिस होटल के चैंबरमेड्स ने वेतन वृद्धि की लड़ाई जीती -चरमराई अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी को लेकर ओमान में जारी विरोध प्रदर्शन का चौथा दिन

आज हम बात करेंगे आपसे जुलाई, 2009 में बी 134, ओखला, फ़ेज़ 1, दिल्ली स्थित वीयरवेल कम्पनी में हो रहे श्रमिकविरोधी कृत्यों के ख़िलाफ़ श्रमिकों के संगठित विरोध और काम बन्द करने की धमकी के बाद घुटनों पर आए कम्पनी-प्रबंधन के द्वारा सुलहनामे पर तैयार होने की..ऑडियो पर क्लिक कर सुनें पूरी खबर..

बात त्रिपुर में हुई एक घटना के सम्बन्ध में है. भाषा, रंग-रूप,क्षेत्र,मुख्तलिफ लेबाज़,दाढ़ी टोपी और चोटी, तिलक- पूर्व और पश्चिम क्या यह सब काफी है- इन्सान को इंसान की जान लेने के लिए. क्या मज़दूरों के हाथों से बनी चीजों को भी मुख्तलिफ इलाक़े, भाषाओं के लिहाज से बांटा जाता है या सिर्फ़ मज़दूरों को आपस में लड़वाना चरमराती,खोखली व्यवस्था को समहालने का आख़री तरीक़ा हैं? तमिलनाडु के त्रिपुर में एक मज़दूर के ऊपर जानलेवा हमला किया गया और इस हादसे में एक मज़दूर की जान कुछ मज़दूरो के हाथों से चली गई और जहाँ, वहां के रहने वाले मज़दूरों ने उड़ीसा से आये एक मज़दूर को जान से मार डाला। आखिर मज़दूर कैसे मज़दूर का दुश्मन हो गया? मज़दूरों की दुश्मन तो यह पूरी व्यवस्था है न कि कोई क्षेत्र, न कोई भाषा. मज़दूरों को खटाने के लिए कम्पनियों ने आज मज़दूर को मज़दूर का दुश्मन बना दिया और मज़दूर सस्ते होते ही कंपनियों में बने सामान की कीमत बढ़ जाती हैं और हम मज़दूर बट बट के इनकी सामानों की क़ीमत को बढ़ाते रहते है - क्योंकि इनके माल का कोई क्षेत्र नहीं, कोई भाषा नहीं, कोई राष्ट्र नहीं,कोई मुल्क़ नहीं कुछ है तो सिर्फ़ पैसा क्योंकि माल तैयार करने के लिये मज़दूर मिलना चाहिए चाहे वो कोई भी जगह का या कोई भी इलाक़े का या कोई भी जाति का हो बस शर्त यह है कि सस्ता हो। खटाने और बाँटने के चक्कर में आज एक मज़दूर की जान गयी और तीन पर ख़ून का इल्जाम लगा. त्रिपुर में 13 साल से रह रही सामाजिक कार्यकर्ता रेशमा ने बताया कि बाहर से आये मज़दूरों से सस्ते में काम लिया जाता है और उनके ऊपर किराये के मकान से लेकर अनजानी जगह बिना पैसे के जीना मुश्किल हो जाता है और कंपनी इससे फ़ायदा उठाती हैं- सस्ते में काम करातीं है - जिसकी वजह से वहाँ के स्थानीय लोगों भी कम पैसे में काम करना पड़ता है और साथ ही कंपनियां पैसे बनातीं हैं और मज़दूर को मज़दूरों को का दुश्मन बनातीं और खटातीं हैं इन सबको आपस में बाँटो और फिर खटाओ क्योंकि जब तक हम बाटेगें नहीं तब तक खटेगें नहीं और हम मज़दूर साथी जब खटना बन्द कर देतें हैं तब यह कंपनीयाँ सस्ते में मज़दूरों से काम कराने के लिए बांटने का काम शुरू कर देतीं हैं और बटते ही मज़दूर कंपनियों के लिए सस्ते हो जातें हैं और कम्पनियां मुनाफ़ा दर मुनाफ़ा एक ऐसा आदमखोर

साझा मंच की टीम 11 जून को तिरूपुर में सिडको औद्योगिक क्षेत्र पहुंची थी. जहां प्रवासी और स्थानीय श्रमिकों के बीच हिंसा की दुखद घटनाओं की जानकारी मिली. आज हम आपके साथ लक्ष्मण से हुई बातचीत साझा कर रहे हैं. लक्ष्मण वह श्रमिक है जो ऐसी ही हिंसा का शिकार हुआ और तिरुपुर जनरल अस्पताल के आईसीयू में जिंदगी और मौत से जूझते हुए आखिर वह अपनी आखिर जंग हार गया. उसके दुनिया से अलविदा करने से पहले कुछ क्षण हमें मिले थे, जिसमें हमने उससे बात की. ये बातें वहां रहने वाले प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं पर रौशनी डालती हैं. लक्ष्मण नौ माह पहले अपने परिवार, गांव और रिश्तों को छोडकर तिरुपुर में काम की तलाश में आया था. यहां उसे दर्जी का काम मिला. जिससे वह 5 हजार रूपए मासिक कमाई करने लगा. हालांकि यह कमाई न्यूनतम मजदूरी से भी कम थी पर उसे आय की जरूरत थी. इस कमाई से वह अपने रहने, खाने का खर्च चुकाता था. बचे हुए कुछ पैसे परिवार को भेजता था, ताकि वहां उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके. लेकिन फिर क्या हुआ लक्ष्मण के साथ आइए सुनते हैं...अचानक बढ़े तनाव के बाद उड़िया लड़के मौके से भाग गए. लेकिन 3 तमिल लड़के उनके पीछे ही पड़े रहे. इन लड़कों की नजर लक्ष्मण पर पड़ी. उन्होंने उसे पकड़ा और बुरी तरह पीटा. वह अपनी जान बचाने की कोशिश करता रहा, मदद की गुहार लगाता रहा लेकिन उसे कोई बचाने नहीं आया. जब पीटने वाले वहां से भाग गए तब लक्ष्मण के दोस्त वहां पहुंचे. उसकी गंभीर हालत देखकर तत्काल अस्पताल पहुंचा...इस पूरी वारदात के वक्त भले ही कोई साथ नहीं आया पर बाद में पुलिस ने आरोपी 3 तमिल लड़कों को गिरफ्तार कर लिया. साझा मंच के स्थानीय साझेदार टीआरएलएम सीटीयू ने जिला कलेक्टर के पास इस मामले के संबंध में एक याचिका दायर की. जिसमें मांग की गई की लक्ष्मण को तत्काल इलाज के लिए मदद दी जाए साथ ही उसकी सुरक्षा की व्यवस्था भी हो. याचिका में यह भी बताया गया कि लक्ष्मण अकेला ऐसा श्रमिक नहीं है जो इस वारदात का शिकार हुआ है बल्कि हर रोज जाने कितने ही प्रवासी श्रमिक हैं जो स्थानीय लोगों के विरोध का सामना कर रहे हैं. यहां सबसे बडी दिक्कत भाषा की है. प्रवासी अपनी शिकायत अपनी भाषा में करना चाहते हैं लेकिन शिकायत विभाग तमिल भाषा को महत्व देता है. इसलिए अधिकांश शिकायतें तो दर्ज ही नहीं होती. याचिका में मांग की गई है कि प्रवासी श्रमिकों के लिए कलेक्टर कार्यालय में एक विशेष शिकायत प्रकोष्ठ बनाया जाए, जहां प्रवासी अपनी भाषा में अपनी तकलीफ बयां कर सकें. कलेक्टर ने इस मसले पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने आश्वासन दिया है कि स्थानीय सरकार प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा पर ज्यादा सजगता से ध्यान देगी. हालांकि यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि सरकार अपने दावों पर कितना खरा उतरती है लेकिन फिलहाल आप हमें बताएं कि घर से दूर काम की तलाश में आए इन मजदूरों का आखिर कसूर क्या है? यदि आप भी प्रवासी श्रमिक हें तो अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें. यदि आपने भी ऐसी को तकलीफ भोगी है तो अपने दूसरे प्रवासी श्रमिक साथियों के साथ उसे बांटे. हम सबको मिलकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठानी होगी. हमारी एकजुटता ही हमारा भविष्य तय करेगी. अपनी राय हमें जरूर बताएं नम्बर तीन दबाकर

बात कुछ दिनों पहले की है जब NCR में यह आवाज़ बुलंद होने लगी कि NCR का न्यूनतम वेतन समान होना चाहिए तो इसी NCR के उत्तर प्रदेश के नॉएडा में एक ऐसे ही शख्स से मुलाक़ात हुई जो अपनी मेहनत को उन मूल्यों में बदलते देख रहा था जिस मुल्क की मिसाल दी जाती है कि उस देश ने इतनी तरक्की कर ली है कि हर इन्सान वहां बहुत सुखी है और ज्यादातर देश के लोग वहां रहना बसना चाहते है एक ऐसी लकीर जो यह दिखाती है कि दुनिया में मज़दूरों और मालिकों के रिश्ते को कायम रखने के लिए दुनिया के कुछ हिस्से को अमीरों और गरीबों की लकीरों में बाँटकर छोटे छोटे हिस्सों में तब्दील करने की नाकाम कोशिश जोकि पिछले कई दशकों से जारी है और वो सरहदें उन लोगों के लिए ही मुसीबत का सबब बन गई जिन्होंने इसका खाका तैयार किया था छोटे छोटे हिस्सों में बाँटना पूरी पूँजीवादी प्रक्रिया ठप करने के लिए काफी है जैसे साईकिल की चैन का कोई भी पॉइंट टूट जाये तो साईकिल नही चल सकती उसी तरह फाक्ट्रियो को छोटे छोटे हिस्से में बाँटने से फाक्ट्रियां मलिका बहुत डारें हुए है कि कब किस फाक्ट्री में कम बंद हो जाये और उस मॉल का छोटा हिस्सा जिसे जोडकर मॉल को पूरा किया जाता है किसी यूनिट से न मिल पाए तो ये अधूरा मॉल कौन लेगा? जब उस इन्सान ने यह बात कही कि जब हम लोग यहाँ कम बंद कर देतें हैं तो कई देशों में हंगामा मच जाता है क्योकि यह लोग हमसे सस्ते में कम करके डालरों में कमाते है तो हमें डालर क्यों नही देते ? और हम तो अब विदेश जाकर ही कमायेगें जहाँ ज़्यादा पैसे मिले जब मालिकों का देश बहुत सुखी है तो यह लोग वहीँ कम क्यों नहीं कराते क्यूंकि इनको वहाँ डालर में पैसे देने पड़ते हैं इसलिए यहाँ पैसे में काम कराके डालर में कमाते हैं और यह सब अंतर्राष्ट्रीय है और हम लोगों को राष्ट्रीय बनाये रखना चाहते हैं| अजय: सही कह रहे हैं रफ़ी जी. आपकी डायरी को सुन कर श्रोता दायरों और सरहदों को तोड़ने की बात ज़रूर करेंगे. तो श्रोताओं आप अपने घर या पड़ोस या फैक्ट्रियों में किस तरह की सरहदों से लड़ते हैं. अपने अनुभाव और विचार जरूर साझा करें

गर्मियों में सर्दियों का अहसास दिलाने वाली डाईकिन AC की कंपनी ने अपने ही कर्मचारियों के दिलों और दिमाग़ों में इतनी गर्मी पैदा कर दी है कि राजस्थान की नीमराना इलाके की पुलिस ने अपने ही मुल्क़ के उन निहत्थे कर्मचारियों पर ज़ुल्म का ऐसा  तांडव किया कि मानो पुलिस की नौकरी के बाद यह पुलिस वाले सीधे जापान की ही नागरिकता हासिल करेंगें। जापानी ज़ोन में राजस्थान की गर्मी और जापान की सर्दी का मुक़ाबला पिछले छह महीनों से जारी है इस मुकाबले को जिन चीजों की ज़रूरत है वह सभी मौजूद है, नारे,कानून,मंच,यूनियन, लॉडस्पीकर,वकील,बस मौजूद नहीं है तो सिर्फ इनकी बहाली। कानून का रास्ता इतना लंबा है कि डाईकिन Ac तब तक हिन्दुस्तान के लाखों घरों को ठंडा कर चुका होगा सिवाये अपने कर्मचारियों के दिलों को छोड़कर। हालांकि हाल ही में राजस्थान के नीमराना में मौजूद जापानी ज़ोन की डाईकिन कंपनी में पंजीकृत होने के बाद भी मैनेजमेंट यूनियन को मान्यता नहीं दे रहा है। और मज़दूर पिछले छह महीने से मान्यता दिलाने और गेट पर यूनियन का झंडा लगाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं लेकिन मैनेजमेंट अपनी ज़िद पर अड़ा हुआ है। तड़प रही आवाजो को बुलन्द करने के लिए बेचैन कर्मचारियों ने 5 फ़रवरी को एक रैली को अंजाम दिया और वह लोग ज्ञापन देने एस डी एम नीमराना पहुंचे | जहाँ आंदोलन को सम्बोधित करने वाले यूनियन लीडर से लेकर नेताओं ने शिरक़त की और हुकूमत को अल्फ़ाज़ों,जज्बातों और क़ानूनों की उन पेचिदगियों का हवाला दिया और साथ ही ग़ुस्से का ऐसा मन्ज़र पेश किया कि चिल्लाते चिल्लाते नेताओं और यूनियन लीडरों की सांसें तक फूल गई। जिसके तहत इन सभी कर्मचारियों की नियुक्ति और यूनियन को कंपनी की मान्यता मिल जानी चाहिए। जिनका हक़ हमारी कानून की किताबों में दर्ज है लेकिन जिसका ज़िक्र तक,न कानूनी क़िताबों में है और न इंसानियत की किताबों में, उसका पालन बहुत ज़ोर शोर से लाठी और डंडों की शक़्ल में पेश किया गया था। रैली में शामिल लोगों में एक शख़्स ऐसा भी था जो पुलिस की मुहब्बत की गिरफ़्त से बच कर रैली में शामिल हुआ था जो कम्पनी के बाउंसर से बचने के लिए पुलिस के चंगुल में फँस गया था जैसे ही सवाल किया कि पुलिस किस तरह आप लोंगों की मदद कर रही है तो वह इंसान और उसके साथ सभी लोग पुलिस  की करतूतों का बयान करने लगे कि पुलिस कर्मचारियों के कमरों में जा जाकर परेशान कर रही है और अब तो बाज़ार में सब्ज़ी लेने में भी डर लगता है कि कब किस बहाने पुलिस हमें अपनी किसी झूठी रिपोर्ट का शिकार बना ले और उस शख्स ने रोते रोते बताया कि जैसे ही वह इस रैली में शामिल होने के लिए कमरे से बाहर आ रहा था तो पुलिस वाले उसको पकड़ के बयान बदलने का दबाव डाल रहे थे जो 8 जनवरी को पुलिस वालों के द्वारा डाईकिन AC के कर्मचारियों पर लाठियों और डंडों का इस्तेमाल किया था और जो मज़दूरों के ज़ख़्म के साथ, इस लाठीचार्ज ने पुलिस की मुस्तैदी और वक़्त की नज़ाक़त को इंसानियत के उस मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जहाँ हर शख़्स को मौका मिलने पर ऐसी ही किसी मंज़र को दोहराने का इंतज़ार रहेगा। वहाँ का हर मंज़र देखकर और कर्मचारियों की बातें सुनकर ऐसा लग रहा था  कि पुलिस वालों ने 8 जनवरी को, इंसान को पुलिस बनाने में बहुत मुस्तैदी से लाठी और डंडों का इस्तेमाल किया । ऐसी ही मुस्तैदी अगर जारी  रही तो जल्द ही हमारे देश में ऐसे पुलिस वालों की तादाद इंसानों से कहीं ज़्यादा होगी। दरअसल यह पूरी लड़ाई उन पूंजीपतियों और कर्मचारियों की है इसमें पुलिस का इस्तेमाल करके पूँजीपतियों ने सरकारी मज़दूरों को कंपनी के मजदूरों का दुश्मन बना दिया है और पुलिस की करतूतों ने पूंजीपतियों का वह चेहरा फिर से उजागर कर दिया जो मज़दूर आज भी इतिहास के पन्नो पर अपने संघर्ष के निशाँ लिखता जा रहा हैं| इस हालात को देख कर फैज़ अहमद फैज़ की वो नज़्म याद आ रही है

Transcript Unavailable.