-दो साल के संघर्ष के बाद पेरिस के आईबिस होटल के चैंबरमेड्स ने वेतन वृद्धि की लड़ाई जीती -चरमराई अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी को लेकर ओमान में जारी विरोध प्रदर्शन का चौथा दिन

नमस्कार आदाब ससरिकाल श्रोताओं साप्ताहिक समाचार कार्यक्रम सारा जहाँ हमारा में आपका स्वागत है 2030 तक भारत में 4 करोड़ 40 लाख पुरुषों की और एक करोड़ 20 लाख महिलाओं की नौकरी चली जाएगी मैककिंसी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में पाया गया है कि कंपनियों में रोबोट के बढ़ते इस्तेमाल के कारण 2030 तक भारत में एक करोड़ 20 लाख महिलाओं की नौकरी चली जाएगी, जबकि पुरुषों के बारे में अनुमान लगाया गया है कि 4 करोड़ 40लाख पुरुषों की नौकरियां ख़त्म हो जाएंगी।ऑटोमेशन की जवह से भविष्य में महिलाओं की नौकरी पर क्या असर पड़ेगा। बेरोज़गारी ने 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ा इस बारे में 10 देशों में ये सर्वे कराया गया था,सर्वे के अनुसार, भारत में खेती, वन, मछली पकड़ने, परिवहन और वेयरहाउसिंग में ऑटोमेशन के कारण महिलाओं की नौकरियां कम होंगी। इसमें नौकरी पाने की क़तार में लगे लोगों को अपना हुनर और शिक्षा दोनों को बढ़ाना होगा। इस समय भारत की अर्थव्यवस्था डगमग है और जो रिपोर्टें आ रही हैं उससे पता चल रहा है कि इस समय बेरोज़गारी ने 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है जबकि रोज़गार में महिलाओँ की भागीदारी 27% के निचले स्तर पर बनी हुई है। ऑटोमेशन पूरी दुनिया में रोज़गार के लिए ख़तरा बन गया है और दुनिया के कई देशों में ट्रेड यूनियनों ने काम के घंटे कम करने की मांग करने लगी हैं। कंपनी में रोबोट के अधिक इस्तेमाल से मज़दूरों के अधिकाधिक बेरोज़ग़ार ऑटोमेशन का सबसे बड़ा असर मैन्युफ़ैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में पड़ने वाला है। इसे लेकर कंपनियां और सरकारें भी चिंतित हैं क्योंकि रोबोट के अधिकाधिक इस्तेमाल से मज़दूरों के अधिकाधिक बेरोज़ग़ार होने की आशंका बढ़ती जा रही है। ये सर्वे विकसित देशों कनाडा, फ़्रांस, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन और अमरीका जबकि विकासशील देशों चीन, भारत, मैक्सिको और दक्षिण अफ़्रीका में किए गए। इन 10 देशें की आबादी पूरी दुनिया की आधी है और इऩ देशों की जीडीपी पूरी दुनिया के मुकाबले 60% है। 30 लाख महिलाओं की नौकरी जाएगी सर्वे के मुताबिक खेती, वन और मछली पालन में 40 लाख महिलाओं की नौकरी जाएगी। हस्तशिल्प और इससे जुड़े व्यापार में 30 लाख महिलाओं की नौकरी जाएगी और अन्य कारोबार में जुड़ी 20 लाख महिलाएं बेरोज़गार हो जाएंगी। विडंबना है कि जो नई नौकरियां पैदा होंगी वो मैन्युफ़ैक्चरिंग, इमारत निर्माण में और स्वास्थ्य सेवाओं में होंगी क्योंकि खेती की हिस्सेदारी घटेगी। मैककिंसी के मुताबिक, भारत में 10 लाख से एक करोड़ 10 लाख महिलाओं को अपने कौशल में निखार लाने की ज़रूरत है। यानी उन्हें खेती से अलग ग़ैर खेती वाले व्यवसायों में जाना होगा। तो श्रोताओं यदि आप भी रोबोटिक टेक्नोलॉजी के साथ काम कर रहें हैं और पूँजीवादी युग में पूँजी की समस्या से झूझ रहें हैं और अपनी कोई प्रतिक्रिया देना चाहते हैं तो दबाएँ नंबर 3 और अगर यह खबर आपको पसंद आई है तो दबाएँ नंबर 5 साथ ही सुनते रहें साँझा मंच मज़दूरों का अपना मीडिया चैनेल।

चुनाव दर चुनाव ये मुद्दा गर्माता है कि आखिर प्रवासी मज़दूर जो काम के सिलसिले में एक जिले से दूसरे जिले और एक राज्य से दूसरे राज्य भटकते रहते हैं, और छुट्टी न मिलने के कारण वोट नहीं दे पाते उनके लिए क्या विक्लप निकाला जा ना चाहिए, लेकिन हर बार ये मुद्दा राज नेताओं की चर्चाओं में ही सिमट कर रह जाता है। बात करें अगर बिहार की तो यहां पहले चरण के मतदान के लिए ज़ोर शोर से तैयारियां हो रही हैं, लेकिन खामोशी है उन प्रवासी श्रमिकों की ज़िदगी में जो चाहते हुए भी लोकसभा के इस महापर्व में मतदान नहीं कर पाएंगे। होली के बाद बिहार से तमिल नाडू लौटने वाले कुछ श्रमिकों ने बताया कि उन्हें कंपनियों की तरफ से साफ फरमान था कि अगर एक दिन भी रुक गए, तो नौकरी गई। वोट डालने के लिए वो वापिस नहीं आ सकते। यहीं हाल दिल्ली एनसीआर में काम करने वाले लाखों प्रवासी श्रमिकों का है, जो चाहते हुए भी वोट नहीं कर पाएंगे। कपड़ा उद्योग में लगे श्रमिकों के लिए इस समय सबसे ज्यादा काम रहता है, अधिक्तर श्रमिक वोट डालने के बारे में सोच भी नहीं रहे, लेकिन ये ज़रूर चाहते हैं कि सरकार ऐसा विक्लप निकाले कि वो लोग दूर रहते हुए भी वोट डाल सकें। गौरतलब है कि बीते साल लोकसभा ने लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक 2017 पास किया था, जिसमें प्रवासी भारतीय मतदाताओं की परेशानियों को दूर करने की पहल की गई है जिससे वे अपने निवास स्थान से अपने मताधिकार का प्रयोग ( यानि की प्रॉक्सी वोटिंग) कर सकें, लेकिन इस दौरान जब भारत में प्रवासी मजदूरों के सामने मतदान को लेकर आने वाली समस्याएं पर ध्यान दिए जाने कि बात उठी तो सरकार का कहना था कि चुनाव आयोग ने एक समिति बनाई है जो इस विषय में अध्ययन कर रही है, उन्हें भी उचित अधिकार दिया जाएगा। एनआरआई की तरह देश के अंदर यहां से वहां जाकर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों को भी प्रॉक्सी से मताधिकार देने के सवाल पर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना था कि एनआरआई और प्रवासी श्रमिकों की तुलना नहीं की जा सकती, प्रवासी श्रमिक भारत में ही रहते हैं। यही तो विड्म्बना है कि जहां वो रहते हैं उनके गृह राज्य में उनके मुद्दे सुने नहीं जाते क्योंकि वो तो मतदान के समय अपने राज्य में आते नहीं, और जहां वो रहते हैं, वहां राजनेताओं को उनमें कोई दिलपचस्पी नहीं क्योंकि प्रवासी मज़दूर उनका वोटबैंक नहीं है। ऑक्सफ़ोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट ने भारत में अपनी पहली रिपोर्ट रेटिंग गिग इकोनॉमी प्लेटफ़ॉर्म (यानि कि ऐसा बाज़ार व्यव्था यहां छोटे ठेके या फ्रीलांस काम ज्यादा हो) को उनकी कामकाजी परिस्थितियों – काम पर न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिहाज से जारी किया है।गिग इकोनॉमी में प्रवेश करने वाले कई भारतीयों के साथ, जिसमें लेबरफोर्स भी शामिल है, जो फ्लिपकार्ट, उबेर जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म द्वारा प्रबंधित किया जाता है, दूसरों के बीच कार्यस्थल की स्थिति एक महत्वपूर्ण विचार बन गई है।वॉलमार्ट के स्वामित्व वाले ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म फ्लिपकार्ट ने अपनी डिलीवरी और लॉजिस्टिक्स आर्म ईकार्ट के लिए भारत में सात अंकों की स्कोरिंग के साथ कंपनी रैंकिंग में शीर्ष स्थान हासिल किया।फूड डिलीवरी प्लेटफॉर्म फूडपांडा, कैब सर्विसेज प्लेटफॉर्म ओला और उबर ने न्यूनतम मजदूरी के मापदंड को पूरा करते हुए सिर्फ दो अंक हासिल किए। इस रिपोर्ट ने बाजार को पांच मोर्चों पर मापा – निष्पक्ष वेतन, उचित काम करने की स्थिति, उचित अनुबंध, जो नियम और शर्तों, निष्पक्ष प्रबंधन और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व के आसपास पारदर्शिता है। पिछले 14 सालों में देश की करीब 5 करोड़ ग्रामीण महिलाएं अपनी नौकरियां छोड़ चुकी हैं। 2004-05 से शुरू हुए इस सिलसिले के तहत साल 2011-12 में नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी सात प्रतिशत तक कम हो गई थी। इसके चलते नौकरी तलाशने वाली महिलाओं की संख्या घट कर 2.8 करोड़ के आसपास रह गई। ये आंकड़े एनएसएसओ की पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 की रिपोर्ट पर आधारित हैं जिन्हें जारी करने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी है। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2004-05 की तुलना में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 49.4 फीसदी से घटकर 2017-18 में 24.6 फीसदी रह गई। हालांकि इसके विपरीत एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि शिक्षा में उच्च भागीदारी की वजह से महिलाएं नौकरियों से बाहर हो रही हैं, लेकिन इस एक कारण से इतनी बड़ी संख्या में भागीदारी कम होने को सही नहीं ठहराया जा सकता।

आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बढ़ते पूंजीवाद को लेकर भारत को चेताया, कहा- खड़ा हो सकता है सामाजिक विद्रोह भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बढ़ते पूंजीवाद से समाज में होने वाले विद्रोह को गंभीर खतरा बताते हुए चेताया है। उनके मुताबिक विशेषकर 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी के बाद आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था लोगों को बराबर अवसर उपलब्ध नहीं करा पाई है। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में प्रोफेसर राजन ने एक कार्यक्रम में बताया कि अर्थव्यवस्था के बारे में विचार करते समय दुनियाभर की सरकारें सामाजिक असमानता को नजरअंदाज नहीं कर सकती हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री रह चुके राजन ने कहा कि पूंजीवाद गंभीर खतरे में है, क्योंकि इसमें कई लोगों को अवसर नहीं मिल पा रहे हैं और जब ऐसा होता है तो पूंजीवाद के खिलाफ विद्रोह खड़ा हो जाता है। वास्तव में जो लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं उनकी स्थिति बिगड़ी है।" राजन ने कहा , "संसाधनों का संतुलन जरूरी है , आप अपनी पसंद से कुछ भी चुन नहीं सकते हैं। वास्तव में जो करने की जरूरत है वह अवसरों में सुधार लाने की जरूरत है।" बीते एक साल में किसान और श्रमिक संगठनों की ओर से निकाले गए प्रदर्शन मार्च हों या नोएडा में हाल ही में हाइपैड फैक्ट्री में श्रमिकों की ओर से किया गया हंगामा देखें या नीमराना में अपने अधिकारों को लेकर डायकेन फैक्ट्री श्रमिकों के चल रहे संघर्ष की बात करें तो कही न कहीं रघुराम राजन द्वारा ज़िक्र किए गए पूंजीवाद के खिलाफ सामाजिक विद्रोह के कुछ उद्हारण हम देख सकते हैं। ज़रूरत है उच्च् कौशल प्रशिषण को बढ़ावा देकर कुशल श्रेणी श्रमिक तौयार करने की जिससे आर्थिक असमानता और पूंजीवाद के बढ़ रहे खतरे को रोका जा सके। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में उच्च कुशल श्रमिकों के अभाव से रोज़गार के अवसर नहीं मिल पाते हैं।

8 मार्च को विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। कहीं अपने अधिकाराों की मांग को लेकर रैलियां निकाली गई, कहीं महिला सशक्तिकरण को लेकर मार्च निकले, सभाओं का आयोजन किया गया, तो कई कंपनियों में महिला दिवस पर जश्न मनाकर महिलाओं को सम्मान देने की औपचारिकता पूरी की गई, लेकिन अगर हम महिला दिवस की शुरूआत के पीछे कारण और इसके मौजूदा परिवेश को देखें तो कुछ समानताओं और बहुत सी भिन्नताओं के साथ तुलना कर सकते हैं। दरअसल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत लगभग एक शताब्दी पहले साल 1908 में तब हुई थी जब 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क शहर में मार्च किया था। महिलाओं ने काम के घंटे कम करने, बेहतर वेतन और मतदान के अधिकार के लिए मार्च किया था। जिसके बाद साल 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में महिला दिवस मनाया गया। 108 साल बाद भी महिलाएं अपने अधिकारों के लिए हर साल मार्च निकाल रही हैं, कभी वेतन में समानता के लिए, कभी घरेलू हिंसा या कार्यस्थल पर शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए महिलाएं आज भी संघर्ष कर रही हैं। महिला दिवस के दिन दिल्ली के जंतर मंतर पर रैली के दौरान राजनितीकरण का रंग भी खूब दिखा, सत्ताधारी सरकार के खिलाफ नारों के बीच महिलाओं के मुद्दे कहीं खोते हुए दिखे। छोटे से लेकर बड़े शहरों में रैलियों का आयोजन किया गया, कही बाइक रैली, तो कहीं पैदल मार्च कर महिला सशक्तिकरण के लिए जागरुक किया गया। बहुत सी कंपनियों में जश्न का प्रबंधन कर कामकाजी महिलाओं को प्रोतसाहित करने की औपचारिकता पूरी की गई, क्योंकि वेतन समानता, कार्यस्थल में शोषण मुक्त माहौल ये सब बातें तो बस बातों में ही गुम हो जाती हैं। विश्व स्तर पर भी महिला दिवस पर अगल-अलग रंग दिखे कही महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद की गई तो कही दबाने की कोशिश भी हुई। तुर्की में इस्तांबुल पुलिस ने विरोध प्रदर्शन पर लगी रोक की अवहेलना करने पर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर शहर के ‘सेंट्रल एवेन्यू’ में एकत्र हुई हजारों महिलाओं पर आंसू गैस के गोले दोगे।ये महिलाएं उन्हें अधिक अधिकार दिए जाने की मांग करने और हिंसा को नकारने के लिए रैली करने पहुंची थीं। इसी बीच महिला दिवस पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संघठन की ओर से जारी की गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 1990 के दशक से महिलाओं के रोज़गार की स्थिति में नाममात्र सुधार हुआ है। एक और रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन पाने में 150 साल अभी और लगेंगे। कुल मिला कर हम कह सकते हैं कि महिला दिवस मनाने का उदेश्य तभी पूरा हो सकेगा, जब धरातल पर स्थिति बदलेगी।

दिल्ली सरकार ने सीवर की सफाई के लिए अपनी जान जोखिम में डालने वाले सफाई कर्मचारियों को बड़ी राहत दी है। सीवर की सफाई के लिए दिल्ली जल बोर्ड की ओर से 200 अत्याधुनिक मशीनें लगाई जा रही हैं, जिससे कि अब सफाई कर्मचारियों को सीवर के अंदर नहीं उतरना पड़ेगा। ये मशीनें छोटी गलियों में भी सफाई का काम आसानी से कर सकेंगी। मशीनों से सीवर की सफाई तय समय पर हो सकेगी और जाम की समस्या खत्म होगी। गौरतलब है कि सफाई समय पर न हो ने के कारण ही कई बार सीवर इस कदर जाम हो जाते हैं कि सीवर लाइन ही बदलनी पड़ जाती है। दिल्ली सरकार के मुताबिक इन मशीनों से समय-समय पर सीवर तय शेड्यूल पर साफ किए जाएंगे और जाम की समस्या से लोग परेशान नहीं होंगे। हायड्रॉलिक, जेटिंग और लोडिंग प्रक्रिया के ज़रिए ये मशीने 30 फीट गहराई तक सफाई कर सकेंगी, जिससे कि अब सफाई कर्मचारियों को सीवर में उतरना नहीं पड़ेगा। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन आने वाले राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों के मुताबिक साल 1993 से लेकर 2018 तक कुल 676 सफाईकर्मियों की सीवर में उतरने से मौत हुई है। इसमें सबसे ज्‍यादा 194 मौतें तमिलनाडु में हुई हैं। वहीं, गुजरात में 122, दिल्‍ली में 33, हरियाणा में 56 और उत्‍तर प्रदेश में 64 मौतें हुई हैं। नरेगा योजना के तहत काम करने के बाद मजदूरी का भुगतान न होना, आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने के फैसले और समय पर राशन नहीं मिलने के विरोध में मध्य प्रदेश के खंडवा में जागृत दलित आदिवासी संगठन पदाधिकारियों के साथ लोगों ने रैली निकाली। कोतवाली का घेराव कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एफआईआर दर्ज कराने के लिए आवेदन दिया। इनके मुताबिक गरीबों ने नरेगा योजना के तहत जुलाई, अगस्त में काम किया था। लेकिन केंद्र सरकार ने नाममात्र का बजट दिया है। इसके चलते कई लोगों को मजदूरी का भुगतान नहीं किया है। ऐसे में भुखमरी फैल रही है। आदिवासी भाईयों को जंगल से बेदखल करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। लेकिन इस फैसले पर प्रधानमंत्री चुप रहे। इसलिए इनके ऊपर एफआईआर होना चाहिए। साथ ही गरीबों को समय पर राशन नहीं मिल रहा है। मजदूरी के रुपए नहीं मिलने के कारण ही जिले से पलायन किया जा रहा है। साथ ही उन्होंने चेतावनी दी है कि 15 दिन में गरीबों को मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ तो बड़े स्तर पर आंदोलन किया जाएगा।

साझा मंच मोबाइल वाणी की तरह ही तमिल नाडू में भी श्रमिकों के चलाई जा रहीं निशुल्क मोबाइल से वा मीडिया की सुर्खियों में है। थॉमस रॉयटरस फाउन्डेशन की ओर से उरुमे कुरल, टीटीसीयू कुरल और हाल ही में शुरू हुई तिरुपुरन कुरल जो कि चेन्नई, डिंडीगुल और तिरुपुर में चल रही है , इस सेवा का ज़िक्र करते हुए बयाता गया है कि किस तरह से तमिल नाडू में कपड़ा मिल में काम करने वाली महिलाएं मोबाइल मीडिया के ज़रिए अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रही हैं। जिसके सकारात्मक नतीजे भी मिल रहे हैं। एक महिला ने संदेश रिकॉर्ड करवाया कि स्पिनिंग मिल में 200 कपड़ा श्रमिकों के लिए सिर्फ 2 ही टॉयलेट हैं, जिस कारण उन्हें परेशानी झेलनी पड़ती है, साथ ही कार्यक्षेत्र में उनके साथ मानसिक और शारिरिक शोषण भी होता है। इन मामलो ंमें संज्ञान लेते हुए टीटीसीयू यूनियन की अध्यक्ष थिव्याराखिनी सेसुराज ने बताया कि उनकी ओर से ऐसे मामलों को फैक्ट्री संचालकों और उच्च अधिकारियों तक पहुंचाया जाता है, जिससे कि कपड़ा मिलों में काम करने वाली महिलाओं के कामकाज की स्थिति में सुधार देखा जा रहा है। एक दिन में 200 से अधिक श्रमिक इस सेवा का का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके साथ न सिर्फ उन्हें अपनी आवाज़ कंपनी प्रबंधकों तक पहुंचाने का ज़रिया मिला है बल्कि ये मोबाइल मीडिया श्रमिकों की ऐकता का भी एक मंच बन गया है।गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन की अध्यक्ष सुजाता मोदी के मुताबिक ये मंच श्रमिकों के अधिकारों की आवाज़ को बुलंद कर रहा है। श्रमिक जागरुक हो रहे हैं, स्थिति सुधर रही है, लेकिन जिन ब्रान्ड्स के लिए ये कपड़ा बनाते हैं, उनके साथ की भी ज़रूरत है तभी श्रमिकों का शोषण रोकने में बड़े स्तर पर बदलाव आ सकता है। चीन में लिंग समानता की ओर बेहतर कदम उठाते हुए सरकार ने कंपनियों को महिला कर्मचारियों की भर्ती करते समय उनकी शादी या बच्चों के बारे में सावल पूछने पर रोक लगा दी है। दरअस्ल, कई कंपनियां शादीशुदा और बच्चों की ज़िमेदारी होने पर महिलाओं को नौकरी देने से परहेज़ करती हैं, इसे देखते हुए सरकार ने ये कदम उठाया है। महिला रोज़गार को बढ़ावा देते हुए चीन की सरकार ने ऐसी कंपनियों पर 50 हज़ार युआन का जुर्माना लगाने का नोटिस जारी कर दिया है, जो नौकरी के इश्तेहार में केवल पुरुष या पुरुषों को प्रथमिकता दी जाने वाली शर्त रखेंगी। चीन की सरकार के इस कदम का कई मानवअधिकार संस्थाओं ने स्वागत किया है लेकिन महिलाओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसके मुताबिक इस कानून का सख्ती से लागू हो पाना बड़ी चुनौती साबित होगा।

हाल में सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों की समिति की ओर से न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के प्रस्ताव का सबसे ज्यादा लाभ कम से कम 10 राज्यों के कामगारों को मिल सकता है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर राज्यों नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मेघालय में वेतन 2 से 5 गुना तक बढ़ सकती है। उदाहरण के लिए 1 नवंबर तक के आंकड़ों के मुताबिक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अकुशल कर्मचारी का वेतन प्रतिदिन 69 रुपये या 1,794 रुपये महीना है। इन राज्यों में न्यूनतम मजदूरी 380 रुपये प्रतिदिन या 9,880 रुपये प्रति महीने हो सकती है। सरकार ने पिछले साल विशेषज्ञ समिति गठित की थी, जिसका काम राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए नया तरीका तय करना था, समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक की गई है। समिति ने सुझाव दिया है कि राष्ट्रीय स्तर पर कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी 9,750 रुपये प्रति माह (375 रुपये प्रतिदिन) होनी चाहिए। जो नई विधि द्वारा निकाला गया है। भारत में रोजगार की स्थिति के बारे में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत में बेरोजगारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है, जोकि चिंता का विषय है, लेकिन रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों को महिला श्रम बल भागीदारी दर के संदर्भ में भी जानना बहुत ज़रूरी है। हाल के वर्षों में 15 साल से अधिक उम्र की महिला श्रम बल भागीदारी दर में गिरावट दोगुनी रही। इसमें 2011-12 और 2017-18 के दौरान 8 फीसदी गिरावट आई है, जबकि पुरुषों में गिरावट 4 फीसदी रही। इसकी मुख्य वजह ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की श्रम बल भागीदारी में भारी गिरावट आना है। शहरों में महिला लगभग पहले के स्तर पर ही है, जबकि यह ग्रामीण क्षेत्रों में 11 फीसदी घटी है। हांलाकि इसके पीछे कई अलग-अलग तर्क भी सामने आ रहे हैं कि यह मांग आधारित है यानी महिलाएं स्वेच्छा से कम काम कर रही हैं। लेकिन महिलाओं के काम मांग आधारित होने पर भी इसे आर्थिक स्तर पर कोई सकारात्मक रुझान नहीं समझा जा सकता। अक्सर महिलाओं के रोजगार को आमदनी के निचले स्तरों पर एक जरूरत के रूप में देखा जाता है और ये भी मूमकिन है कि जब आमदनी में बढ़ोतरी हो तो महिलाएं कार्यबल से बाहर हो जाती हों।

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