-दक्षिण अफ्रीका की सबसे बड़ी डेयरी कंपनी में सरकारी दमन के बावजूद हड़ताल जारी - आईएमएफ के अनुसार बांग्लादेश प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत को पीछे छोड़ देगा

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आज की कड़ी में अधिवक्ता पदम कुमार बता रहे है कि अगर श्रमिकों को लॉक डाउन में कंपनी द्वारा वेतन नहीं मिलता है तो क्या करना चाहिए ? सुनने के लिए क्लिक करें ऑडियो पर

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साझा मंच की टीम 11 जून को तिरूपुर में सिडको औद्योगिक क्षेत्र पहुंची थी. जहां प्रवासी और स्थानीय श्रमिकों के बीच हिंसा की दुखद घटनाओं की जानकारी मिली. आज हम आपके साथ लक्ष्मण से हुई बातचीत साझा कर रहे हैं. लक्ष्मण वह श्रमिक है जो ऐसी ही हिंसा का शिकार हुआ और तिरुपुर जनरल अस्पताल के आईसीयू में जिंदगी और मौत से जूझते हुए आखिर वह अपनी आखिर जंग हार गया. उसके दुनिया से अलविदा करने से पहले कुछ क्षण हमें मिले थे, जिसमें हमने उससे बात की. ये बातें वहां रहने वाले प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं पर रौशनी डालती हैं. लक्ष्मण नौ माह पहले अपने परिवार, गांव और रिश्तों को छोडकर तिरुपुर में काम की तलाश में आया था. यहां उसे दर्जी का काम मिला. जिससे वह 5 हजार रूपए मासिक कमाई करने लगा. हालांकि यह कमाई न्यूनतम मजदूरी से भी कम थी पर उसे आय की जरूरत थी. इस कमाई से वह अपने रहने, खाने का खर्च चुकाता था. बचे हुए कुछ पैसे परिवार को भेजता था, ताकि वहां उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके. लेकिन फिर क्या हुआ लक्ष्मण के साथ आइए सुनते हैं...अचानक बढ़े तनाव के बाद उड़िया लड़के मौके से भाग गए. लेकिन 3 तमिल लड़के उनके पीछे ही पड़े रहे. इन लड़कों की नजर लक्ष्मण पर पड़ी. उन्होंने उसे पकड़ा और बुरी तरह पीटा. वह अपनी जान बचाने की कोशिश करता रहा, मदद की गुहार लगाता रहा लेकिन उसे कोई बचाने नहीं आया. जब पीटने वाले वहां से भाग गए तब लक्ष्मण के दोस्त वहां पहुंचे. उसकी गंभीर हालत देखकर तत्काल अस्पताल पहुंचा...इस पूरी वारदात के वक्त भले ही कोई साथ नहीं आया पर बाद में पुलिस ने आरोपी 3 तमिल लड़कों को गिरफ्तार कर लिया. साझा मंच के स्थानीय साझेदार टीआरएलएम सीटीयू ने जिला कलेक्टर के पास इस मामले के संबंध में एक याचिका दायर की. जिसमें मांग की गई की लक्ष्मण को तत्काल इलाज के लिए मदद दी जाए साथ ही उसकी सुरक्षा की व्यवस्था भी हो. याचिका में यह भी बताया गया कि लक्ष्मण अकेला ऐसा श्रमिक नहीं है जो इस वारदात का शिकार हुआ है बल्कि हर रोज जाने कितने ही प्रवासी श्रमिक हैं जो स्थानीय लोगों के विरोध का सामना कर रहे हैं. यहां सबसे बडी दिक्कत भाषा की है. प्रवासी अपनी शिकायत अपनी भाषा में करना चाहते हैं लेकिन शिकायत विभाग तमिल भाषा को महत्व देता है. इसलिए अधिकांश शिकायतें तो दर्ज ही नहीं होती. याचिका में मांग की गई है कि प्रवासी श्रमिकों के लिए कलेक्टर कार्यालय में एक विशेष शिकायत प्रकोष्ठ बनाया जाए, जहां प्रवासी अपनी भाषा में अपनी तकलीफ बयां कर सकें. कलेक्टर ने इस मसले पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने आश्वासन दिया है कि स्थानीय सरकार प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा पर ज्यादा सजगता से ध्यान देगी. हालांकि यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि सरकार अपने दावों पर कितना खरा उतरती है लेकिन फिलहाल आप हमें बताएं कि घर से दूर काम की तलाश में आए इन मजदूरों का आखिर कसूर क्या है? यदि आप भी प्रवासी श्रमिक हें तो अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें. यदि आपने भी ऐसी को तकलीफ भोगी है तो अपने दूसरे प्रवासी श्रमिक साथियों के साथ उसे बांटे. हम सबको मिलकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठानी होगी. हमारी एकजुटता ही हमारा भविष्य तय करेगी. अपनी राय हमें जरूर बताएं नम्बर तीन दबाकर

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