असल में कोरोना महामारी के कारण मार्च 2020 में लागू किये गए लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा। रोज कमाकर अपना पेट पालने वाले इन मजदूरों को लॉकडाउन की घोषणा के बाद संभलने का मौका ही नहीं मिला। वो जिन ठेकेदारों, कंपनियों, दफ्तरों और लोगों के सहारे थे उन सबने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था। बीमारी की दहशत, काम बंदी, भुखमरी का डर और लॉकडाउन के शुरुआत में पुलिस की सख्ती के चलते प्रवासी मजदूरों के सामने ऐसे हालात पैदा हो गए कि उन्हें हजारों किलोमीटर दूर पैदल सफर कर अपने गांव लौटना पडा। पैदल मीलों लंबा सफर तय करने में इन मजदूरों को महीनों लग गए, कई मुश्किलों का सामना करते हुए वे अपने गांव पहुंचे. कई तो ऐसे भी थे जिनका सफर अधूरा ही रह गया. बहुत से मजदूर सडक हादसों का शिकार हुए और कुछ को मौसम की मार और बीमारी ने मार डाला. हालांकि मजदूरों के दर्द को सुप्रीम कोर्ट ने समझा और आदेश दिया कि 15 दिन के अंदर सभी राज्यों से प्रवासियों की सुरक्षित वापसी कराई जाए। यह कदम तत्काल उठाया गया लेकिन जैसे तैसे अपने घर पहुंचे मजदूरों को उनके ही अपनों ने दुत्कार दिया. संक्रमण के डर से मजदूरों को गांव के बाहर ही प्रवास करने पर मजबूर किया गया. इसके बाद मजदूरों को काम देने के लिए केन्द्र सरकार ने मनरेगा के फंड में इजाफा किया. पर जब मुख्य बजट की बात आई तो मनरेगा के नाम पर सरकार ने हाथ खडे कर लिए. गांव में काम नहीं होने के कारण जो मजदूर दोबारा शहर आए थे उन्हें यहां भी काम नहीं मिल रहा है. ऐसे में वे दोबारा गांव की ओर पलायन कर रहे हैं. हम आपसे जानना चाहते हैं कि सरकार ने मनरेगा के फंड में कटौती कर मजदूरों के साथ छल किया है? क्या आपको नहीं लगता कि सरकार के इस फैसले से मजदूरों के हालात बदत्तर हो रहे हैं? लॉकडाउन के बाद आई बेरोजगारी से मजदूर साथी कैसे निपट रहे हैं?