मनरेगा में भ्रष्टाचार किसी से छुपा हुआ नहीं है, जिसका खामियाजा सबसे ज्यादा दलित आदिवासी समुदाय के सरपंचों और प्रधानों को उठाना पड़ता है, क्योंकि पहले तो उन्हें गांव के दबंगो और ऊंची जाती के लोगों से लड़ना पड़ता है, किसी तरह उनसे पार पा भी जाएं तो फिर उन्हें प्रशासनिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस मसले पर आप क्या सोचते हैं? क्या मनरेगा नागरिकों की इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम हो पाएगी?

आपका पैसा आपकी ताकत की आज की कड़ी में हम सुनेंगे अपने श्रोताओं की राय

आपका पैसा आपकी ताकत की आज की कड़ी में हम जानेंगे एसएचजी यानि की स्वयं सहायता समुह से जुड़ने के क्या फायदे हैं और इससे जुड़ कर कैसे आप अपने जीवन में बदलाव ला सकते हैं।

इसके बरक्स एक और सवल उठता है कि क्या सरकारें चाहती हैं कि वह लोगों का खाने-पीने और पहनने सहित सामान्य जीवन के तौर तरीकों को भी तय करें? या फिर इस व्यवसाय को एक धार्मिक समुदाय को निशाना बनाने के लिए इस तरह के आदेश जारी किये जा रहे हैं। सरकार ने इस आदेश को जारी करते हुए इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि उसके एक आदेश से कितने लोगों की रोजी रोटी पर असर पड़ेगा

सरकार भले ही आदिवासियों के कल्याण के लिए अनेकों योजनाएं चला रही हो लेकिन सरजमीन पर हकीकत कुछ और ही है विशेषकर आदिवासी समाज की महिलाओं की स्थिति आज भी सदियों पुरानी राह पर ही चलकर जीवन निर्वहन करने को मजबूर हैं गरीबी की चक्की में पिस रही ऐसी महिलाएं आज भी पत्ते चुनकर किसी तरह गुजर बसर कर रही हैं दिन भर जंगल में एक पेड़ से दूसरे पेड़ के नीचे शाल का पत्ता चुनकर दिवस व्यतीत कर रहे हैं जहां परिवार के बाल बच्चों के साथ बैठकर पत्तल बनाते हैं दिन भर में दो-तीन सौ पत्तल बना लेते है इतने के बाद भी बाजार की सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण इन मेहनतकश महिलाओं को उचित दाम भी नहीं मिल पाता है। प्रखंड समद धपरी डांगरा आदि आदिवासी गांव की महिलाएं आज भी उपेक्षित हैं। डांगरा गांव के सीता देवी बनाते हुए बताया कि परिवार चलाने के लिए कुछ तो काम करना पड़ेगा। इस जंगली क्षेत्र में पत्तल बनाना एक मात्र रोजगार है। जिसमें परिवार के सभी लोग लगे रहते हैं। पत्तल बनाने के बाद बाजार से कई साइकिलवाले आते हैं और 25-30 रुपये सैंकड़ा के हिसाब से पत्तल खरीद कर ले जाते हैं। जिससे परिवार की गाड़ी किसी तरह चलती है।टेटिया बंपर प्रखंड के क्षेत्र के आदिवासी गांव की 20से अधिक महिलाएं अब पत्तल बना कर अपनी जिदगी संवार रही हैं। महिलाओं द्वारा तैयार किए गए पत्तल की शादी सहित अन्य समारोह में काफी डिमांड है। गांव की महिलाएं सुबह में जंगल से सखुआ का पत्ता चुन कर लाती हैं। इस कार्य में घर के पुरुष सदस्य भी मदद करते हैं। इसके बाद पत्ते से भोज में उपयोग किए जाने वाला पत्तल तैयार करती हैं। गांवों में पत्तल तैयार करने का काम आदिवासी समुदाय की महिलाएं करती हैं। महिलाएं बारीक सींक से सखुआ के पत्तों को एक दूसरे से टांक कर पत्तल तैयार करती हैं।

मेरी भी आवाज़ सुनो कार्यक्रम के अंतर्गत इस कड़ी में आत्मनिर्भर भारत योजना के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई।आत्मनिर्भर भारत योजना लोगों को रोजगार देने और आत्मनिर्भर बनने में सहायता प्रदान कर रहा है। अधिक जानकारी के लिए ऑडियो पर क्लिक करें।

शाबाश के इस कड़ी जानेंगे कि महिलाएं किस तरह से अनेक परेशानियों के बावजूद हर नहीं मानी और मंजिल तक पहुँच गयी। अधिक जानकारी के लिए ऑडियो पर क्लिक करें

महिला दिवस की इस कड़ी में हम जानेंगे रिंकी कुमारी कैसे अपनी परिस्थितियों से लड़ते हुये अपने परिवार को संभाल रही हैं

सोमवार को यूको आर सेटी के ओर से जिले के रामपुर संग्रामपुर में 10 दिवसीय है गाय पालन एवं वर्मी कंपोस्ट उत्पादन हेतु प्रशिक्षण का उद्घाटन दीप प्रज्वलित कर यूको आर सेटी के निर्देशक गौतम कुमार एवं ट्रेनर द्वारा किया गया इस प्रशिक्षण में रामपुर, तारापुर ,रनगांव, से लगभग 32 महिला तथा 3 पुरुष ने भाग लिया।

दोस्तों, राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट के अनुसार एक महिला अभी भी 2.5 किमी तक पैदल चलकर जाती हैं ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं अपने परिवार के लिए पीने का पानी लाने में औसतन दिन में 3-4 घंटे खर्च करती हैं, यानि अपने पूरे जीवन काल में 20 लाख घंटों से भी ज्यादा. क्या आपको ये बातें पता है ? और ज्यादा जानने के लिए इस ऑडियो को क्लिक करें ...