सरकार भले ही आदिवासियों के कल्याण के लिए अनेकों योजनाएं चला रही हो लेकिन सरजमीन पर हकीकत कुछ और ही है विशेषकर आदिवासी समाज की महिलाओं की स्थिति आज भी सदियों पुरानी राह पर ही चलकर जीवन निर्वहन करने को मजबूर हैं गरीबी की चक्की में पिस रही ऐसी महिलाएं आज भी पत्ते चुनकर किसी तरह गुजर बसर कर रही हैं दिन भर जंगल में एक पेड़ से दूसरे पेड़ के नीचे शाल का पत्ता चुनकर दिवस व्यतीत कर रहे हैं जहां परिवार के बाल बच्चों के साथ बैठकर पत्तल बनाते हैं दिन भर में दो-तीन सौ पत्तल बना लेते है इतने के बाद भी बाजार की सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण इन मेहनतकश महिलाओं को उचित दाम भी नहीं मिल पाता है। प्रखंड समद धपरी डांगरा आदि आदिवासी गांव की महिलाएं आज भी उपेक्षित हैं। डांगरा गांव के सीता देवी बनाते हुए बताया कि परिवार चलाने के लिए कुछ तो काम करना पड़ेगा। इस जंगली क्षेत्र में पत्तल बनाना एक मात्र रोजगार है। जिसमें परिवार के सभी लोग लगे रहते हैं। पत्तल बनाने के बाद बाजार से कई साइकिलवाले आते हैं और 25-30 रुपये सैंकड़ा के हिसाब से पत्तल खरीद कर ले जाते हैं। जिससे परिवार की गाड़ी किसी तरह चलती है।टेटिया बंपर प्रखंड के क्षेत्र के आदिवासी गांव की 20से अधिक महिलाएं अब पत्तल बना कर अपनी जिदगी संवार रही हैं। महिलाओं द्वारा तैयार किए गए पत्तल की शादी सहित अन्य समारोह में काफी डिमांड है। गांव की महिलाएं सुबह में जंगल से सखुआ का पत्ता चुन कर लाती हैं। इस कार्य में घर के पुरुष सदस्य भी मदद करते हैं। इसके बाद पत्ते से भोज में उपयोग किए जाने वाला पत्तल तैयार करती हैं। गांवों में पत्तल तैयार करने का काम आदिवासी समुदाय की महिलाएं करती हैं। महिलाएं बारीक सींक से सखुआ के पत्तों को एक दूसरे से टांक कर पत्तल तैयार करती हैं।