राज्य छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव से वीरेंद्र गंधर्व झारखण्ड मोबाईल वाणी के माध्यम से बता रहे हैं कि एक ज़माना था जब कुम्हार का समाज में अत्यंत सम्मान था। और मिटटी के बर्तन भी धडल्ले से बिका करते थे।मिटटी के बर्तनो में ही खाना बनाया जाता था जो अत्यंत स्वादिष्ट होता था। और पर्यावरण के लिए भी लाभदायक होता था। किन्तु आज कुम्हारों की दशा अत्यंत दयनीय है। पहले गर्मी के दिनों में लोग मिटटी के बर्तन खरीदते थे ठंडा पानी पिने के लिए किन्तु आज फ्रिज आ गया है तो लोग मिटटी के बरतन नहीं खरीदते हैं । जिस कारण से उनकी रोजी रोटी पर असर पड़ा। इसलिए लोगो को मिटटी के बर्तनो का महत्त्व समझाना होगा। तभी जा कर पुरानी पीढ़ी का निर्माण होगा। और कुम्हारों की रोजी रोटी बढ़ेगी।
झारखण्ड राज्य के गुमला जिला के सिसई प्रखंड से संदीप कुमार मोबाइल वाणी के माध्यम से बताते हैं कि आधुनिक समय में लोग स्वदेशी सामान के जगह विदेशी या चायनीज सामानो का उपयोग अधिक करते हैं। जिस प्रकार दीपावली पर्व में दिये को देखा जाए, तो कुम्हार द्वारा बनाए गए दिये की जगह लोग चायनीज दिये का प्रयोग अधिक मात्रा में करते हैं और सामान्यता देखा जाए तो कुम्हार के दिये से कम मूल्य में चायनीज दिये बाजार में मिल जाते हैं। और चायनीज वस्तु कीमत के साथ-साथ लोगों में आकर्षण का केंद्र भी बना रहता है। फलस्वरूप यह देखा जाता है कि कुम्हार के दिये की जगह चायनीज ज्यादा बिक्री होते हैं। जिस कारण कुम्हारों में अपनी मिटटी की कला के प्रति थोड़ी उदासीनता देखने को मिलती है।जिससे कुम्हारों का रोजगार समाप्त होता जा रहा है। कुम्हारों को मिट्टी के बर्तन,दिये,घड़ा एवं अन्य वस्तुओं को बनाने में जितना मेहनत लगता है। उसके अनुसार वस्तु का लागत मूल्य नहीं मिल पाता है। मूल्य नहीं मिलने के कारण ही बाजार में कुम्हार द्वारा बनाई गई मिट्टी के बर्तन बनाने में बहुत कम रूचि दिखाई देती है।
झारखंड राज्य के गुमला ज़िला के चैनपुर प्रखंड से राजू जी बताते हैं कि वर्तमान समय में लोग मिटटी के वस्तु की जगह अन्य चाइनीज या स्टील के बर्तनो का उपयोग करते हैं। जिसके कारन आज कुम्हारों की स्थिति दयनीय होती जा रही है। जिससे कुम्हार भी अब मिटटी के बर्तनों को बनाने में कम रूचि दिखाने लगे हैं। आये दिन देखा जा रहा है की लोग अब बाजार से विदेशी या चायनीज वस्तु ही खरीदते हैं। और कुम्हारों के द्वारा बनाया गया मिटटी के वस्तुओं का उपयोग कभी कभी ही करते हैं। जिससे कुम्हारों का अस्तित्व भी खतरे में आ गया है। इस समय देखा जाए तो कुम्हार मिटटी की वस्तुओं को बनाना छोड़ कर अन्य क्षेत्र में भी कार्य करने में लगे हैं। क्योकि अब मिटटी के बर्तनो से उनके परिवार का भरण पोषण करना संभव नहीं हो रहा है। साथ ही कुम्हार लोग शिक्षा के प्रति रूचि दिखाने लगे हैं। जिससे वे अब पढ़ लिख कर विभिन्न क्षत्रों में नौकरी भी कर रहे हैं। इस कारण से भी कुम्हारों का अश्तित्व खत्म होता जा रहा हैं।
झारखंड राज्य के बोकारो जिला के जरीडीह प्रखंड से शिवनारायण महतो मोबाइल वाणी के माध्यम से कहते हैं, कि इस आधुनिक युग में मनुष्य को मिट्टी के गुणों की जानकारी का घोर अभाव है। जिसके कारण आज की नई पीढ़ी मिट्टी के बर्तनों का उपयोग नहीं करना चाहते हैं। पुराने समय में लोग मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाया करते थे और मिट्टी से बने घड़े या सुराही का पानी पिया करते थें। यही कारण है की पुराने समय के लोग स्वस्थ और अधिक जीवन जीते थें। शादी विवाह, जन्म उत्सव, पूजा-पाठ आदि अनेकों प्रकार के कार्यों में मिट्टी से बने बर्तनो का उपयोग करना अति आवश्यक समझा जाता था। इससे पर्यावरण को संतुलित रखने में मदद मिलती थी। यही कारन है कि पहले कुम्हार के दुकानों में खरीदारों की भीड़ लगी रहती थीं मगर आज के समय में लोग मिट्टी के बर्तनों की जगह प्लास्टिक और पॉलथिन का उपयोग कर रहें हैं। दीपावली पर्व में मिट्टी के दिये जलाने की जगह लोग चायनीज एवं विद्युत बल्बों का उपयोग करते हैं। इसका पर्यावरण को छति पहुँचती है। प्लास्टिक और पॉलथिन के उपयोग से लोग कई तरह की बिमारियों के चपेट में आ रहें हैं। मिट्टी के बर्तनों की बिक्री कम होने से कुम्हारों के आगे आर्थिक संकट खड़ा हो गया है। अतः सरकार द्वारा प्लास्टिक और पॉलथिन के बर्तनो पर प्रतिबन्ध लगाने तथा मिट्टी के गुणों के प्रति मानव समाज में जागरूकता पैदा करने की आवश्यक्ता है
झारखंड राज्य के बोकारो ज़िला से झारखंड मोबिल वाणी के माध्यम से नागेश्वर महतो बता रहे है कि भारतीय संस्कृति ,साहित्य, धर्म एवम सामजिक क्षेत्र में कुम्हारों की कला कृतियों का मत्वपूर्ण स्थान रहा है। कुम्हार द्वारा निर्मित दीप, प्याला, घड़ा ,खिलौने आदि का उपयोग जन्म से मृत्यु तक किया जाता है। दीप,कलश के बिना जनमोत्स्व वैवाहिक कार्यक्रम एवम अन्य धार्मिक आयोजन अधूरा है। कुम्हार के द्वारा हस्त निर्मित बर्तनो उपयोग समाज में मनुष्य आजीवन करते रहतें हैं। दीप से लेकर अन्य मिट्टी के बर्तनो का विक्रय कर कुम्हार आजीविका चलाने का इतिहास गावहा है।कुम्हार दीवाली का बेसब्री से इंतजार करते थे ,पर आज के बदलती प्रस्तितियों में कुम्हार द्वारा निर्मित दीप सहित अन्य मिट्टी के बने वस्तु का उपयोग नहीं करना चाहती। आधुनिक युग में प्लास्टिक के तरह-तरह के डिजाइनों वाले छोटे -छोटे बरतनों का उपयोग का होड़ मचा हुआ है। जिससे पर्यावरण प्रदूषित होती है। कुम्हारों द्वारा निर्मित मिट्टी के बर्तनो के विक्रय नहीं होने से उनकी यह वृति लुप्त हो गई है।कुम्हार चिंतित हो अन्य धंधे में लिप्त हो रहें हैं साथ ही रोज़गार की तलाश में पलायन कर रहे है। कुम्हार की इस वृति को जीवंत रखने के लिए उन्हें ना तो किसी भी प्रकार का सहयोग मिलता है और ना ही प्रोत्साहन। कुम्हार द्वारा निर्मित बर्तन का उपयोग भरपूर करना समाज का बहुत बड़ा दायित्व है।
झारखण्ड राज्य के धनबाद जिला के तोपचांची प्रखंड से झारखण्ड मोबाईल वाणी के माध्यम से रविंद्र महतो बता रहे है कि वर्तमान समय में कुम्हारो की माली स्तिथि चिंताजनक है और सरकार के द्वारा ऐसे परिवारों को किसी भी प्रकार से वित्तीय लाभ नहीं दिया जाता है। लोगों का मिट्टी से बने खिलौने से मोहभंग होने लगा है, जिस कारण कुम्हारो की आय ना के बराबर है। जिससे वे ना तो अपना और ना ही आपने परिवार का भरण पोषण कर पा रहे है और उन्हें विभिन्न प्रकार के कठिनाइयों का सामना करना भी पड़ रहा है। कुम्हारो के लिए मिट्टी की भी काफी समस्या उत्पन्न हो गई है। उन्हें बर्तन बनाने बनाने के लिए दूसरे के खेतों से सम्पर्क कर मिट्टी लाना पड़ता है। जिसके लिए उन्हें काफी पैसे देने पड़ते हैं साथ ही क्षेत्र में कोयला के अभाव के कारण कच्चे बर्तन को पकने के लिए काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जिस कारण इन्हे भुखमरी के दौर से भी गुजरना पड़ता है। इसी कारण अब कुम्हार परिवार अपना पेशा को छोड़ इसका विकल्प ढूढ़ने में लगें है यदि सरकारी सहायता इन्हे प्राप्त हो साथ ही मिट्टी के बर्तन के उपयोग का लोगो के प्रति रुझान हो तो वे सम्भवता कुम्हारों का विकास सम्भव हो पायेगा।
झारखंड राज्य के धनबाद ज़िला के बाघमारा प्रखंड से झारखंड मोबाइल वाणी के माध्यम से मदन लाल चौहान बता रहे है, कि मनुष्य द्वारा बनाए वस्तु से उसकी जाती की पहचान होती है। मिट्टी के दिया से पर्यावरण का ख्याल रख जा सकता है । प्लास्टिक से बने सामानो के बढ़ते प्रचलन से और मिट्टी ना मिल पाने से चाक की रफ्तार दिनों दिन धीमी होती जा रही है। चाक से बनाए गए बर्तन की लोगों के द्वारा सही दाम ना मिल पाने से कुम्हारों के इस पेशे से मोह भंग होते जा रहा है अगर यह समस्या बानी रही तो यह भी कहना सही होगा की चाक कि रफ़्तार थम जाएगी एवम आने वाले समय में कुम्हारों के नस्ल भी अनभिज्ञ रहा जाएंगे। अतः सरकार को इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरुरत है।
झारखंड राज्य के बोकारो जिला से झारखण्ड मोबाइल वाणी के माध्यम से सुमंत कुमार बता रहे है ,कि एक जमाना था जब कुम्हारो के बने मिट्टी के बर्तन दीप, प्याला,घड़ा आदि की खरीदारी करने के लिए लोगों की लाइन लग जाती थी। लेकिन आज के समय में दूसरी बात देखने को मिल रहा है। कुम्हरो के द्वारा तैयार किये गए बर्तन से जहाँ हमारा स्वास्थ्य ठीक रहता है ,वहीँ हमारी अर्थव्यवस्थ को भी लाभ पहुँचत है। मिट्टी के बने बर्तन से पर्यावरण अनुकूल रहता है जिसका उपयोग कर पर्यावरण की रक्षा कर सकते है। क्योंकि मिट्टी में पोषक तत्वों की भरमार होती है। आज के युग में लोगो को आधुकनिकता को छोड़ कर अधिक से अधिक मिट्टी से बने बर्तन का उपयोग करें जिससे कुम्हारों की आर्थिक स्थिति ठीक हो साथ ही देश प्रगति की ओर बढ़ सके।
झारखण्ड राज्य के हज़ारीबाग ज़िला के दारू प्रखंड से बलराम शर्मा मोबाइल वाणी के माध्यम से बता रहे हैं कि जहाँ आधुनिकरण के आने से मुश्किलों भरी कार्य आसान हो गए हैं तो वही पुरखों की परम्परा और सभ्यता लुप्त होते जा रहे हैं।अपनी हाथों की कला से सादी एवं गंदी मिट्टी को नया रूप निखार प्रदान करने वाले कुम्हार की स्थिति आज के युग में दयनीय हो गई हैं।आज समाज विकास की सीढियाँ चढ़ने में व्यस्त हैं। आधुनिकरण के दौर में कुम्हारों द्वारा बनाई गई मिट्टी की कलाकृतियाँ की महत्व घटती ही जा रही हैं। बाज़ार की वस्तुएँ की माँग इस कदर बढ़ गई हैं कि लोग कुम्हारहों द्वारा बनाई गई मिट्टी के बर्तन,खिलौने,मूर्तियाँ,दीये आदि को उतना महत्व नहीं देते हैं।कुम्हार महनत से मिट्टी को नया रूप दे कर दीया,मूर्तियाँ आदि बना कर बाज़ारों में बेचने लाते तो हैं परन्तु लोग हस्तकला को छोड़ बाज़ारों में बिकनें वाली कृत्रिम चमचमाती लाइट,मूर्तियाँ,दीया आदि माँग करते हैं।कुम्हारों की वस्तुएँ बिक न पाने की वज़ह से उनकी जीविका सुचारु ढंग से आगे नहीं बढ़ पाती हैं।जो कुम्हार दूसरे के घरों में रोशनी लाने हेतु दीये बनाती हैं उन्ही कुम्हारों की जिन्दगी अंधेरें में बीतती हैं। देखा जाता हैं कि कम लागत में बिकने वाली कुम्हार द्वारा निर्मित वस्तुएँ,चीनी उत्पादों के सामने टिक नहीं पाती क्योंकि चीनी उत्पादों की माँग बाज़ारों में अधिक हैं।कारणवश कुम्हार अपनी सभ्यता को त्यागने पर मज़बूर हो जाते हैं। बलराम जी बताते हैं कि हमारे समाज में कुम्हारों की जिंदगी ख़तरे में हैं,सरकार को कुम्हारों को ध्यान में रखते हुए चीन से आयत होने वाली वस्तुओं पर रोक लगाने की आवश्यकता हैं। देश में निर्मित एवं कुम्हारों द्वारा बनाई जाने वाली कलाकृतियों को बढ़ावा देना चाहिए।ताऔर परंपरा कि देश के विकास के साथ साथ समाज में कुम्हारों का भी विकास हो सके। और हमारी सभ्यता और परंपरा बरक़रार रहे।
झारखण्ड राज्य के हज़ारीबाग ज़िला से विष्णुगढ़ प्रखंड से राजेश्वर महतो झारखण्ड मोबाइल वाणी के माध्यम से बता रहे हैं, कि हाथों की कला को मिट्टियों में दीया,घड़ा,कलश,ढकनी के रूप में उतारने वाले कुम्हारों की स्थिति दयनीय हैं।झारखण्ड में खपरा,दीपक,घड़ा,ढकनी,गिलास मटका सहित अन्य जरुरत की वस्तुओं को बनाने वाले कुम्हारों की बेरोजग़ारी काफ़ी चिंताजनक बनी हुई हैं।कुम्हार अपने चक्का,डंडा तथा धागा से अंधा चूका बनाते समय लोगों में मुस्कुराहट लाता हैं परन्तु उसके चेहरे की खुशी छिन गई हैं,मुस्कुराहट के जग़ह झुर्रियाँ दिखाई पड़ती हैं।कुम्हारों से हुई बातचीत से राजेश्वर जी को पता चला कि उन लोगों को पहले की तरह काम नहीं मिल पाता हैं। पहले जहा खपरा का घर होता था उस वक़्त खपरे को उपयोग में लाने हेतु कुम्हारों की माँग ज़्यादा थी परन्तु अभी लोग ईंट सीमेंट का इस्तेमाल कर छत बनवाते हैं जिस कारण रोज़गार में कमी आई हैं। गर्मी के मौसम में ठन्डे पानी का सेवन के लिए घड़े को उपयोग में लाया जाता हैं वही जाड़े के मौसम में बोरसी की जरुरत पड़ती हैं। उसी तरह दीपावली में मूर्तियाँ एवं दीये की जरुरत पड़ती हैं,शादी एवं श्राद्ध में भी मिट्टी से बनी वस्तुओं की जरुरत पड़ती हैं।ऐसे ही मौसम में और कार्यक्रम के दौरान मिट्टी के उत्पादों की ज़्यादा माँग रहती हैं।बाकि शेष समय में कुम्हारों के काम ठप रहते हैं।इससे उनके जीविका में काफ़ी असर पड़ता हैं एवं परिवार के पालन-पोषण में कई परेशानियों का सामना पड़ता हैं।कुम्हारों द्वारा बनाए गए वस्तुएँ संतुलित वातावरण बनाए रखने में एहम भूमिका अदा करती हैं वही वर्तमान में कृत्रिम उत्पादों की बढ़ती माँग,चमचमाती साज सज्जा के सामान से वातावरण को नुकसान तो पहुँच ही रहा हैं साथ ही इसकी माँग के कारण कुम्हारों की आमदनी घटती जा रही हैं।इस कारण कुम्हारें रोज़गार के आभाव में महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं।सरकार द्वारा अच्छे दिन दिखाने वाली सपने झूठे साबित हो रही हैं।सरकार उनकी मदद के लिए कोई योजनाएँ लागू नहीं करती हैं।प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना में कुम्हारों को भी शामिल करनी चाहिए ताकि जानकारी धरातल पर उतरे और लोगों तक पहुँच पाए।