लॉकडाउन के बाद काम शुरू होने पर जहाँ एक तरफ जहाँ कम्पनियों में छँटनी की गतिविधियाँ तेज हो गयी हैं, तो वहीं दूसरी तरफ नए हथकंडे अपनाते हुए वर्तमान में काम कर रहे श्रमिकों की मज़दूरी के रेट में कटौती कर उन्हें काम छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जो श्रमिक अभी कुछ दिन पहले तक पीस रेट में काम करना पसंद कर रहे थे, वही श्रमिक अचानक रेट में हो रही कटौती के कारण या तो काम छोड़ दे रहे हैं या फिर शिफ्ट में काम करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। आइए जानते हैं कि इसपर उनका क्या कहना है जहाँ एक तरफ़ लॉकडाउन के बाद पीस रेट में हो रही लगातार कटौती के कारण श्रमिक परेशान हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इसका सीधा फ़ायदा कंपनी मालिक और ठेकेदार उठा रहें हैं। धमकी और शोषण के बोझ तले श्रमिक अपने हालात और परिस्थितियों से मजबूर होकर काम जारी रखते हैं। तो श्रोताओं, हम आपसे जानना चाहते हैं कि आखिर यह रेट तय कौन करता है? क्या कभी आपके पीस रिजेक्ट हुए हैं और पीस रिजेक्ट होने पर क्या उसका पैसा काटा जाता है? अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो, तो उसे हमारे साथ ज़रूर साझा करें अपने फ़ोन में 3 दबाकर

पिछले कुछ दिनों से हम लगातार सुन रहे हैं कि लॉकडाउन के बाद दुबारा काम शुरू होने पर कम्पनियों में पीस रेट पर काम करना अब श्रमिकों को रास नहीं आ रहा है। पीस रेट में हो रही लगातार कटौती और उसके भुगतान की अनिश्चितता ने पीस रेट से कामगारों का मोहभंग कर दिया है और वे फिर से शिफ़्ट में काम करने को प्राथमिकता दे रहे हैं, क्योंकि यहाँ मेहनताने की तय राशि का भुगतान निश्चित है। पिछली कड़ी में हमने इसी विषय पर अपने श्रमिक साथियों के विचार जानने की कोशिश की थी। उसी चर्चा को इस कड़ी में आगे बढ़ाते हुए यह समझने की कोशिश करते हैं कि लॉकडाउन के बाद हमारे श्रमिक साथियों का पीस रेट पर काम करने का अनुभव कैसा रहा है ?

कम्पनियाँ अक्सर श्रमिकों के हक़ों/ अधिकारों से खिलवाड़ करती आयी हैं और आज भी वे वही कर रही हैं। धड़ल्ले से श्रमिकों को को काम से निकाले जा रही हैं। कम्पनियाँ शायद यह भूल गयी हैं कि मुसीबत के समय में इन श्रमिकों ने ही हमेशा उनका साथ दिया है। कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों द्वारा उठायी गयी मुसीबतों और परेशानियों का दर्द तो हम बयान भी नहीं कर सकते। एक तरफ़ जहां कम्पनियों की पूंजी को बचाने के लिए श्रमिक साथी निरंतर अपना श्रम खर्च करते रहते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ जब उनके मेहनताने की बात आती है तो वही कम्पनियाँ इनसे मुँह मोड़ लेती हैं... आइए सुनते हैं इस विषय पर हमारे श्रमिक साथियों का क्या कहना है! ओवर टाइम कराकर उचित मेहनताना न देना, समय से वेतन का भुगतान न करना और बिना कारण बताए काम से निकाल देना जैसी समस्याएँ तो अब आम बात हो गयी हैं। कम्पनियों को किसी भी तरीक़े से श्रमिकों का शोषण कर अपनी पूँजी बचानी होती है। आखिर कब तक इस तरह श्रमिकों का शोषण होता रहेगा? कब तक श्रमिकों को अपने श्रम के बदले उचित मेहनताने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा? कब तक उन्हें काम से निकाले जाने की धमकी दी जाती रहेगी? आख़िर कब श्रमिक साथी खुल कर अपनी ज़िंदगी जी पाएंगे? इस विषय पर अपना अनुभव और विचार हमारे साथ ज़रूर साझा करें अपने फ़ोन में नंबर 3 दबाकर

लॉकडाउन का खेल ख़त्म हो चुका है और मानवता, मानवता चिल्लाने वाले नेताओं में कमी आयी है। अर्थव्यवस्था को बजाने और मजदूरों को खपाने के लिए वैक्सीन तैयार हो चुकी है। हालांकि चुनावी वैक्सीन,चुनावी रैलियों में आये लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने में काफ़ी सफल साबित हुई है। आंदोलनों,धरनों और रैलियों का सिलसिला पिछले साल की तरह नये मुददों के साथ फिर से शुरू हो गया है। लाखों की संख्या में किसानों के रूप में बैठी मानवता कॉम्पनियों के मज़दूर बनने को तैयार नहीं हैं| कॉम्पनियाँ की सरकारें इंसान को मज़दूर बनाने में पूरी तरह फेल हो होती जा रही हैं| कोरोना से संक्रमित व्यक्तियों से कहीं ज़्यादा बेरोज़गारों का संक्रमण बढ़ता जा रहा है जो कॉम्पनियों और उनकी सरकारों के लिए बड़ी मुसीबत है और उधर कंपनियों में छटनियों का दौर चालू है बेरोजगारी आन्दोलनों और धरनों का रूप धारण करती जा रही है। जहाँ दुनिया भर की कॉम्पनियों की सरकारें यह मान चुकी हैं कि मजदूरी कराना अब आसान नहीं रहा है दुनिया भर में गिरती अर्थव्यवस्था और बदलते श्रम कानून इस बेचैनी का जीता जागता सबूत हैं| जहां परत दर परत मज़दूरों की निगरानी में खपती पूँजी सरमायेदारों की नींद हराम किये हुए है जिसको हम मज़दूरों की रोती गाती तस्वीरों के ज़रिये छुपाने की कोशिश की जा रही है सख़्त से सख़्त क़ानून बनाने के बाद भी पूंजीवादी व्यवस्थाओं का सिंघासन डामाडोल है| लोगों का व्ययस्थाओं पर बढ़ता गुस्सा और मजदूरों की मेहनत की लूट, कॉम्पनियों और उनकी सरकारों पर भारी पड़ रही है| हाल ही में बैंगलुरु के पास स्थित कोलार जिले के नरसापुरा औधोगिक इलाके में आईफोन कॉम्पनी में काम कर रहें हजारों मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा| मज़दूर साथियों का दावा हैं कि चार महीने से कॉम्पनी मज़दूरों के वेतन में कटौती कर रही थी और शिकायत पर मैनेगमेंट चुप्पी साधे रहा| जिसका नतीजा यह हुआ कि हिंसक प्रदर्शन में कॉम्पनी का 437 करोड़ का नुकसान हो गया है हालांकि नुकसान के आंकड़ों पर अभी मतभेद है| कुछ मज़दूर साथी इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि कॉम्पनियाँ इंसानों को मशीन समझती हैं इनके मालिकों को पैसे के फ़ायदे और नुकसान की ही भाषा समझ आती है| कॉम्पनी का नुकसान होने पर फौरन हिसाब सामने आ गया लेकिन मजदूरों के पैसे का हिसाब सकड़ों साल तक सामने नहीं आता है| न जाने कितनी हीं कॉम्पनियाँ और ठेकेदार हम मजदूरों का कितना पैसा मारकर बैठें हैं जिसका आज तक कोई हिसाब नहीं हैं|

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श्रमिकों को ओवर टाइम के पारिश्रमिक का भुगतान किए बिना अतिरिक्त काम करवाना गलत है, लेकिन साझा मंच पर हमारे श्रोताओं का कहना है कि कंपनी अतिरिक्त काम तो करवाती है, लेकिन उसके अनुसार निर्धारित पैसे नहीं देती, यानि उन्हें ओवर टाइम का लाभ नहीं मिलता

सरकार सिर्फ पूंजीपतियों के लिए ही बानी है। श्रमिक कल भी संघर्ष कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं। न्यूनतम वेतन ना मिलना तो अब आम समस्या बन गयी है । श्रमिक संगठन भी कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। आज भी दिल्ली जैसे शहर में बहुसंख्यक पुरुष और महिलाएं गांव से आकर कार्य करते हैं। क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है

एक बार फिर हम हाज़िर है आपके साथ "नए श्रम कानूनों के ऊपर श्रमिक साथियों की राय एवं प्रतिक्रिया लेकर । जहाँ लॉक डाउन लागू होने से श्रम संकट गहरा गया और पूंजीपतियों को मज़दूरों की कमी से आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। इसके लिए अब सरकार अर्थव्यवस्थाओं को फिर से पटरी पर लाने के लिए श्रम कानूनों में बदलाव किए, लेकिन मजदूर और मजदूर संघ इन बदलावों की खुली मुखालफत कर रहे हैं। श्रमिक का कहना है कि कानून अंधा होता है, इस बदलाव से श्रमिकों को ना तो कोई फायदा होने वाला है और ना ही कोई फर्क पड़ने वाला है। पूंजीपतियों को आगे बढ़ाने के लिए ही श्रम कानूनों में बदलाव किए गए हैं? सरकार नए श्रम कानूनों के सहारे श्रमिकों को कमजोर और पूंजी को मजबूत करना चाहती है।तो साथियों, इन नए श्रम कानूनों पर आपका क्या कहना है? अपना विचार हमसे ज़रूर साझा करें फोन में नंबर तीन दबाकर, धन्यवाद।

लॉकडाउन का हवाला देकर कम्पनियाँ प्रोडक्शन कम और खर्च ज़्यादा होने की बात कह कर इसी आधार पर श्रमिकों की छँटनी कर रही हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर देखने पर पता चलता है कि प्रोडक्शन में कोई कमी नहीं है। बल्कि कम्पनियाँ किसी भी तरह कम श्रमिकों से ज़्यादा काम करवाना चाहती हैं। एक तरफ कम्पनियाँ श्रमिकों की छँटनी कर रही हैं तो दूसरी तरफ उन्हें पीस रेट में काम करने के लिए मजबूर कर उन्हें दुहरी चोट पहुँचा रही हैं। तो साथियों, क्या हम श्रमिकों को कम्पनियों की पीस रेट की नीति के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए? इस पर अपने विचार हमसे ज़रूर साझा करें अपने फ़ोन में नंबर तीन दबाकर

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