नमस्कार साथियों। मैं श्वेता आज फिर हाज़िर हूँ आपके बीच "टार्गेट पूरा न कर पाने पर कम्पनियाँ मनमाने तरीक़े से निकाल देती हैं श्रमिकों को" विषय पर अपने श्रमिक साथियों की राय-प्रतिक्रिया के साथ। हम श्रमिक अपनी कम्पनी के लिए दिन-रात एक कर, बिना समय की परवाह किए, अपनी जान दांव पर लगाकर काम करते हैं, जिससे कम्पनी को मुनाफ़ा हो और उस मुनाफ़े से मिलने वाले पारिश्रमिक से हमारी रोज़ी-रोटी चल सके। लेकिन जब कभी किसी कारणवश या टार्गेट बहुत अधिक होने के कारण हम उसे पूरा नहीं कर पाते, तो कम्पनियाँ बिना हमारा पक्ष सुने टार्गेट पूरा न होने का ज़िम्मेदार मानकर मनमाने तरीक़े से हमें निकाल देती हैं।जिन श्रमिकों के बूते इन कम्पनियों का काम चलता है और इनके मालिक ऐशो-आराम की ज़िंदगी जीते हैं, उन्हीं श्रमिकों के साथ कम्पनियों का यह रवैया क्या सही है? साथियों इस विषय पर आपका क्या कहना है? क्या आपको भी लगता है कि कम्पनियों की इस मनमानी को रोकने की ज़रूरत है और उसे रोकने के लिए हम श्रमिक साथियों को संगठित होने की ज़रूरत है! साथ ही हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से अगर आपके दैनिक कामकाजी जीवन में कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा हो, आपको कुछ करने की प्रेरणा मिलती हो और आप अपने कार्यस्थल पर हो रहे श्रमिक-विरोधी कृत्यों के ख़िलाफ़ संगठित होकर आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित होते हैं

श्रमिकों को ओवर टाइम के पारिश्रमिक का भुगतान किए बिना अतिरिक्त काम करवाना गलत है, लेकिन साझा मंच पर हमारे श्रोताओं का कहना है कि कंपनी अतिरिक्त काम तो करवाती है, लेकिन उसके अनुसार निर्धारित पैसे नहीं देती, यानि उन्हें ओवर टाइम का लाभ नहीं मिलता

सरकार सिर्फ पूंजीपतियों के लिए ही बानी है। श्रमिक कल भी संघर्ष कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं। न्यूनतम वेतन ना मिलना तो अब आम समस्या बन गयी है । श्रमिक संगठन भी कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। आज भी दिल्ली जैसे शहर में बहुसंख्यक पुरुष और महिलाएं गांव से आकर कार्य करते हैं। क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है

एक बार फिर हम हाज़िर है आपके साथ "नए श्रम कानूनों के ऊपर श्रमिक साथियों की राय एवं प्रतिक्रिया लेकर । जहाँ लॉक डाउन लागू होने से श्रम संकट गहरा गया और पूंजीपतियों को मज़दूरों की कमी से आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। इसके लिए अब सरकार अर्थव्यवस्थाओं को फिर से पटरी पर लाने के लिए श्रम कानूनों में बदलाव किए, लेकिन मजदूर और मजदूर संघ इन बदलावों की खुली मुखालफत कर रहे हैं। श्रमिक का कहना है कि कानून अंधा होता है, इस बदलाव से श्रमिकों को ना तो कोई फायदा होने वाला है और ना ही कोई फर्क पड़ने वाला है। पूंजीपतियों को आगे बढ़ाने के लिए ही श्रम कानूनों में बदलाव किए गए हैं? सरकार नए श्रम कानूनों के सहारे श्रमिकों को कमजोर और पूंजी को मजबूत करना चाहती है।तो साथियों, इन नए श्रम कानूनों पर आपका क्या कहना है? अपना विचार हमसे ज़रूर साझा करें फोन में नंबर तीन दबाकर, धन्यवाद।

लॉकडाउन का हवाला देकर कम्पनियाँ प्रोडक्शन कम और खर्च ज़्यादा होने की बात कह कर इसी आधार पर श्रमिकों की छँटनी कर रही हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर देखने पर पता चलता है कि प्रोडक्शन में कोई कमी नहीं है। बल्कि कम्पनियाँ किसी भी तरह कम श्रमिकों से ज़्यादा काम करवाना चाहती हैं। एक तरफ कम्पनियाँ श्रमिकों की छँटनी कर रही हैं तो दूसरी तरफ उन्हें पीस रेट में काम करने के लिए मजबूर कर उन्हें दुहरी चोट पहुँचा रही हैं। तो साथियों, क्या हम श्रमिकों को कम्पनियों की पीस रेट की नीति के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए? इस पर अपने विचार हमसे ज़रूर साझा करें अपने फ़ोन में नंबर तीन दबाकर