बेटों की चाह में बार-बार अबॉर्शन कराने से महिलाओं की सेक्शुअल और रिप्रोडक्टिव लाइफ पर भी बुरा असर पड़ता है। उनकी फिजिकल और मेंटल हेल्थ भी खराब होने लगती है। कई मनोवैज्ञानिको के अनुसार ऐसी महिलाएं लंबे समय के लिए डिप्रेशन, एंजायटी का शिकार हो जाती हैं। खुद को दोषी मानने लगती हैं। कुछ भी गलत होने पर गर्भपात से उसे जोड़कर देखने लगती हैं, जिससे अंधविश्वास को भी बढ़ावा मिलता है। तो दोस्तों आप हमें बताइए कि * -------आखिर हमारा समाज महिला के जन्म को क्यों नहीं स्वीकार पाता है ? * -------भ्रूण हत्या और दहेज़ प्रथा के आपको क्या सम्बन्ध नज़र आता है ?

भारत का आम समाज अक्सर सरकारी सेवाओं की शिकायत करता रहता है, सरकारी सेवाओं की इन आलोचनाओं के पक्ष में आम लोगों सहित तमाम बड़े बड़े अर्थशास्त्रियों तक का मानना है कि खुले बाजार से किसी भी क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों में कंपटीशन बढ़ेगा जो आम लोगों को बेहतर सुविधाएं देगा। इस एक तर्क के सहारे सरकार ने सभी सेवाओं को बाजार के हवाले पर छोड़ दिया, इसमें जिन सेवाओं पर इसका सबसे ज्यादा असर हुआ वे शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर पड़ा है। इसका खामियाजा गरीब, मजदूर और आम लोगों को भुगतना पड़ता है।

सुनिए डॉक्टर स्नेहा माथुर की संघर्षमय लेकिन प्रेरक कहानी और जानिए कैसे उन्होंने भारतीय समाज और परिवारों में फैली बुराइयों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई! सुनिए उनका संघर्ष और जीत, धारावाहिक 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' में।

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बिहार राज्य के गिद्धौर प्रखंड के संजीवन ने मोबाइल वाणी के माध्यम से बताया की मठ्या गाँव को नेचर विलेज के रूप में जाना जाता है , ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां की महिलाएं आत्मनिर्भर होने के साथ - साथ पर्यावरण को बचाने के लिए भी काम करती हैं । गाँव की एक दर्जन से अधिक महिलाएं इस काम में लगी हुई हैं । एक समय था जब गाँव की महिलाओं को बीड़ी बनाने का काम करने के लिए मजबूर किया जाता था । एक साल पहले तत्कालीन तहसीलदार निर्भय प्रताप सिंह ने इस गांव का नाम नेचर विलेज रखा और इसे आगे बढ़ाया । धीरे - धीरे यह गाँव सफलता का एक नया उदाहरण बन गया । आज प्रस्तुति गाँव की महिलाएं नेचर विलेज अभियान के तहत काम कर रही हैं वर्तमान में सभी महिलाएं होली के लिए हर्बल गुलाल तैयार कर रही हैं जम्मू जिले के बाजारों में इन रंगों की मांग बढ़ रही है । आपको बता दें कि मटिया जम्मू जिले के लक्षमीपुर प्रखंड के अंतर्गत आने वाला एक गाँव है जहाँ महिलाएं आत्मनिर्भर हैं । हम गुलाल ( अवीर ) बनाते हैं , हरा गुलाल पालक और कुछ अन्य पत्तियों से बनाया जाता है , नारंगी गुलाल नारंगी और गेंदे के फूलों से बनाया जाता है , लाल और गुलाबी गुलाल चुकंदर से बनाया जाता है । रंगीन गोलाल तैयार किया जाता है । एक रंग का गोलाल तैयार करने में दो दिन लगते हैं । पहले एक दिन में पचास से सत्तर रुपये कमाते थे , आज नेचर विलेज के तहत एक सौ तैंतीस रुपये मिलते हैं , जबकि तत्कालीन संभागीय अधिकारी निर्भय प्रताप सिंह के अनुसार , यहां की महिलाएं आनंदपुर मोहनपुर मटिया और उसके आसपास रहती हैं और उनकी गुलाल की मांग इतनी अधिक है कि पिछले चार दिनों में लगभग पांच कुंतल का ऑर्डर प्राप्त हुआ है । पहली सात महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया , जिसके बाद बाकी महिलाओं को पढ़ाया गया । आज के समय में एक दर्जन से अधिक महिलाएं इस काम से जुड़ी हुई हैं और हर्बल गुलाल बनाने के लिए काम कर रही हैं । आय में भी वृद्धि होती रहेगी , उन्होंने कहा कि नौकरी में शामिल होने के बाद उन्होंने कई जगहों पर नेचर विलेज की अवधारणा देखी थी , इस दौरान वे इस क्षेत्र में काम करने वाले कई पुरस्कार विजेता लोगों से भी मिले । आज वह सपना पूरा हुआ है और साकार हुआ है । इसके अलावा , हर्बल गुलाल के लाभों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि लोग बिना किसी चिंता के इसका उपयोग कर सकते हैं , जबकि बाजार में उपलब्ध रासायनिक गुलाल कई प्रकार की समस्याओं का कारण बन सकता है ।

दहेज में परिवार की बचत और आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है. वर्ष 2007 में ग्रामीण भारत में कुल दहेज वार्षिक घरेलू आय का 14 फीसदी था। दहेज की समस्या को प्रथा न समझकर, समस्या के रूप में देखा जाना जरूरी है ताकि इसे खत्म किया जा सके। तो दोस्तों आप हमें बताइए कि *----- दहेज प्रथा को लेकर आपके क्या विचार है ? *----- आने वाली लोकसभा चुनाव में दहेज प्रथा क्या आपके लिए मुद्दा बन सकता है ? *----- समाज में दहेज़ प्रथा रोकने को लेकर हमें किस तरह के प्रयास करने की ज़रूरत है और क्यों आज भी हमारे समाज में दहेज़ जैसी कुप्रथा मौजूद है ?

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