सुनिए डॉक्टर स्नेहा माथुर की संघर्षमय लेकिन प्रेरक कहानी और जानिए कैसे उन्होंने भारतीय समाज और परिवारों में फैली बुराइयों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई! सुनिए उनका संघर्ष और जीत, धारावाहिक 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' में...

बेटों की चाह में बार-बार अबॉर्शन कराने से महिलाओं की सेक्शुअल और रिप्रोडक्टिव लाइफ पर भी बुरा असर पड़ता है। उनकी फिजिकल और मेंटल हेल्थ भी खराब होने लगती है। कई मनोवैज्ञानिको के अनुसार ऐसी महिलाएं लंबे समय के लिए डिप्रेशन, एंजायटी का शिकार हो जाती हैं। खुद को दोषी मानने लगती हैं। कुछ भी गलत होने पर गर्भपात से उसे जोड़कर देखने लगती हैं, जिससे अंधविश्वास को भी बढ़ावा मिलता है। तो दोस्तों आप हमें बताइए कि * -------आखिर हमारा समाज महिला के जन्म को क्यों नहीं स्वीकार पाता है ? * -------भ्रूण हत्या और दहेज़ प्रथा के आपको क्या सम्बन्ध नज़र आता है ?

बनो नई सोच ,बुनो हिंसा मुक्त रिश्ते की आज की कड़ी में हम सुनेंगे महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और हिंसा के बारे में।

दहेज में परिवार की बचत और आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है. वर्ष 2007 में ग्रामीण भारत में कुल दहेज वार्षिक घरेलू आय का 14 फीसदी था। दहेज की समस्या को प्रथा न समझकर, समस्या के रूप में देखा जाना जरूरी है ताकि इसे खत्म किया जा सके। तो दोस्तों आप हमें बताइए कि *----- दहेज प्रथा को लेकर आपके क्या विचार है ? *----- आने वाली लोकसभा चुनाव में दहेज प्रथा क्या आपके लिए मुद्दा बन सकता है ? *----- समाज में दहेज़ प्रथा रोकने को लेकर हमें किस तरह के प्रयास करने की ज़रूरत है और क्यों आज भी हमारे समाज में दहेज़ जैसी कुप्रथा मौजूद है ?

बनो नई सोच ,बुनो हिंसा मुक्त रिश्ते की आज की कड़ी में हम सुनेंगे यौन हिंसा के बारे में।

भारत में शादी के मौकों पर लेन-देन यानी दहेज की प्रथा आदिकाल से चली आ रही है. पहले यह वधू पक्ष की सहमति से उपहार के तौर पर दिया जाता था। लेकिन हाल के वर्षों में यह एक सौदा और शादी की अनिवार्य शर्त बन गया है। विश्व बैंक की अर्थशास्त्री एस अनुकृति, निशीथ प्रकाश और सुंगोह क्वोन की टीम ने 1960 से लेकर 2008 के दौरान ग्रामीण इलाके में हुई 40 हजार शादियों के अध्ययन में पाया कि 95 फीसदी शादियों में दहेज दिया गया. बावजूद इसके कि वर्ष 1961 से ही भारत में दहेज को गैर-कानूनी घोषित किया जा चुका है. यह शोध भारत के 17 राज्यों पर आधारित है. इसमें ग्रामीण भारत पर ही ध्यान केंद्रित किया गया है जहां भारत की बहुसंख्यक आबादी रहती है.दोस्तों आप हमें बताइए कि *----- दहेज प्रथा को लेकर आप क्या सोचते है ? और इसकी मुख्य वजह क्या है ? *----- समाज में दहेज़ प्रथा रोकने को लेकर हमें किस तरह के प्रयास करने की ज़रूरत है ? *----- और क्यों आज भी हमारे समाज में दहेज़ जैसी कुप्रथा मौजूद है ?

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दोस्तों, यह साल 2024 है। देश और विश्व आगे बढ़ रहा है। चुनावी साल है। नेता बदले जा रहे है , विधायक बदले जा रहे है यहाँ तक की सरकारी अधिकारी एसपी और डीएम भी बदले जा रहे है। बहुत कुछ बदल गया है सबकी जिंदगियों में, लेकिन महिलाओं की सुरक्षा आज भी एक बड़ा सवाल बना हुआ है। देश की सरकार तो एक तरफ महिला सशक्तिकरण का दावा करती आ रही है, लेकिन हमारे घर में और हमारे आसपास में रहने वाली महिलाएँ आखिर कितनी सुरक्षित हैं? आप हमें बताइए कि *---- समाज में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर हमें किस तरह के प्रयास करने की ज़रूरत है ? *---- महिलाओं को सही आज़ादी किस मायनों में मिलेगी ? *---- और घरेलू हिंसा को रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए ?

महिला दिवस पर पुरुषों से मुक्ति,फ्री सेक्स सोसाइटी और हमें चाहिए आजादी जैसे नारों के शोर में किसी पांच छह बरस की बिटिया की सिसकी किसे सुनाई देती है। वास्तव में इसे चीख कहा जाना चाहिए जिसे मुंह दबा कर सिसकी में तब्दील कर दिया जाता है। मैं बात कर रहा हूं विश्व की लगभग बीस करोड़ महिलाओं की जो लगभग नब्बे देशों में रहती हैं और जिनके शरीर के सबसे संवेदनशील हिस्से को धर्म के नाम पर खुरच कर, जला कर हटा दिया जाता है। एफजीएम यानी फीमेल जेनेशियल म्युटाइलेशन के नाम से जानी जाने वाली यह प्रथा मुख्यत: इस्लामिक समुदायों में पाई जाती है जो अफ्रीका, अरब, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और यूरोप के कुछ हिस्सों में प्रचलित है। यह अत्यंत दर्दनाक प्रथा है जहां महिला के प्राइवेट पार्ट के उस भाग को का,टकर इसलिए हटा दिया जाता है ताकि उनके मन में बुरे ख्याल न आ सकें। सेक्सुअल डिजायर के दमन का इतना जघन्य रूप शायद ही किसी समाज में देखने को मिलता है। इसलिए मुझे महिला दिवस किसी फैशन से अधिक नही लगता जहां कार्यक्रम में खाना पीना गाना बजाना ही नारीवाद समझा जाता है। जहां इन विषयों पर चर्चा होने की बजाय शबरीमाला जैसे विषयों पर छद्म बातें की जाती हैं। लड़कियां सर से पैर तक कैद हैं, उनकी इच्छाएं दमित हैं फिर भी यह नारी विमर्श की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं बन पाती। इसका कारण नारी विमर्श केवल सांस्कृतिक मार्क्सवाद का एक टूल बनकर रह गया है। विमर्श करने वालियां पपेट हैं जिनकी डोर कहीं और है। आप आज से कल या सप्ताह भर के कार्यक्रम देखिए, कहीं आपको एफजीएम यानी योनि को सिल कर, जलाकर, खुरचकर हटाए जाने पर चर्चा शायद दिखे। कहीं शायद ही आपको इसे रोकने के लिए मार्च या धरने की चर्चा मिले। आलिम फाजिल लोग कहते हैं कि यह सब नैतिकता और सफाई के नाम पर होता है। मुझे लगता है कि यदि ऐसा है तो यही प्रक्रिया नवाबों और आलिमों के साथ पहले लागू की जानी चाहिए क्योंकि उनकी भी अच्छी खासी भागेदारी अनैतिक और अस्वच्छ कार्यों में होती है।

देश की राजनीति और चुनावों पर नजर रखने वाली गैर सरकारी संस्था एडीआर के अनुसार लगभग 40 फीसदी मौजूदा सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 25 फीसदी ने उनके खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज होने की घोषणा अपने शपथ पत्र में की है। सांसदों के आपराधिक रिकॉर्ड का विश्लेषण उनके ही द्वारा दायर किये शपथ पत्रों के आधार पर किया गया है। अगर संख्या के आधार पर देखा जाए तो मोजूदा संख्या 763 लोकसभा और राज्यसभा) में से 306 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। जिनमें से 194 पर गंभीर आपराधिक मामले हैं जिसमें हत्या, लूट और रेप जैसे गंभीर मामले हैं। जिनमें अधिकतम सजा का प्रावधान किया गया है।