महिला दिवस पर पुरुषों से मुक्ति,फ्री सेक्स सोसाइटी और हमें चाहिए आजादी जैसे नारों के शोर में किसी पांच छह बरस की बिटिया की सिसकी किसे सुनाई देती है। वास्तव में इसे चीख कहा जाना चाहिए जिसे मुंह दबा कर सिसकी में तब्दील कर दिया जाता है। मैं बात कर रहा हूं विश्व की लगभग बीस करोड़ महिलाओं की जो लगभग नब्बे देशों में रहती हैं और जिनके शरीर के सबसे संवेदनशील हिस्से को धर्म के नाम पर खुरच कर, जला कर हटा दिया जाता है। एफजीएम यानी फीमेल जेनेशियल म्युटाइलेशन के नाम से जानी जाने वाली यह प्रथा मुख्यत: इस्लामिक समुदायों में पाई जाती है जो अफ्रीका, अरब, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और यूरोप के कुछ हिस्सों में प्रचलित है। यह अत्यंत दर्दनाक प्रथा है जहां महिला के प्राइवेट पार्ट के उस भाग को का,टकर इसलिए हटा दिया जाता है ताकि उनके मन में बुरे ख्याल न आ सकें। सेक्सुअल डिजायर के दमन का इतना जघन्य रूप शायद ही किसी समाज में देखने को मिलता है। इसलिए मुझे महिला दिवस किसी फैशन से अधिक नही लगता जहां कार्यक्रम में खाना पीना गाना बजाना ही नारीवाद समझा जाता है। जहां इन विषयों पर चर्चा होने की बजाय शबरीमाला जैसे विषयों पर छद्म बातें की जाती हैं। लड़कियां सर से पैर तक कैद हैं, उनकी इच्छाएं दमित हैं फिर भी यह नारी विमर्श की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं बन पाती। इसका कारण नारी विमर्श केवल सांस्कृतिक मार्क्सवाद का एक टूल बनकर रह गया है। विमर्श करने वालियां पपेट हैं जिनकी डोर कहीं और है। आप आज से कल या सप्ताह भर के कार्यक्रम देखिए, कहीं आपको एफजीएम यानी योनि को सिल कर, जलाकर, खुरचकर हटाए जाने पर चर्चा शायद दिखे। कहीं शायद ही आपको इसे रोकने के लिए मार्च या धरने की चर्चा मिले। आलिम फाजिल लोग कहते हैं कि यह सब नैतिकता और सफाई के नाम पर होता है। मुझे लगता है कि यदि ऐसा है तो यही प्रक्रिया नवाबों और आलिमों के साथ पहले लागू की जानी चाहिए क्योंकि उनकी भी अच्छी खासी भागेदारी अनैतिक और अस्वच्छ कार्यों में होती है।