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राजनैतिक सिंद्धांत औऱ प्रक्रियाओं में न्याय सबसे पुरानी अवधारणाओं में से एक है, न्याय के सिद्धांत को लेकर तमाम प्रकार की बातें कहीं गई हैं, जिसे लगभग हर दार्शनिक और विद्वान ने अपने समय के अनुसार समझाया है और सभी ने इसके पक्ष में अपनी आवाज को बुलंद किया है। न्याय को लेकर वर्तमान में भी पूरी दुनिया में आज भी वही विचार हैं, कि किसी भी परिस्थिति में सबको न्याय मिलना चाहिए। इसके उलट भारत में इस समय न्याय के मूल सिद्धामत को खत्म किया जा रहा है। कारण कि यहां न्याय सभी कानूनी प्रक्रियाओं को धता को बताकर एनकाउंटक की बुल्डोजर पर सवार है, जिसमें अपरधियों की जाति और धर्म देखकर न्याय किया जाता है। क्या आपको भी लगता है कि पुलिस को इस तरह की कार्रवाइयां सही हैं और अगर सही हैं तो कितनी सही हैं। आप इस मसले पर क्या सोचते हैं हमें बताइये अपनी राय रिकॉर्ड करके, भले ही इस मुद्दे के पक्ष में हों या विपक्ष में
नए नए आजाद हुए देश के प्रधानमंत्री नेहरू एक बार दिल्ली की सड़कों पर थे और जनता का हाल जान रहे थे, इसी बीच एक महिला ने आकर उनकी कॉलर पकड़ कर पूछा कि आजादी के बाद तुमको तो प्रधानमंत्री की कुर्सी मिल गई, जनता को क्या मिला, पहले की ही तरह भूखी और नंगी है। इस पर नेहरु ने जवाब दिया कि अम्मा आप देश के प्रधानमंत्री की कॉलर पकड़ पा रही हैं यह क्या है? नेहरू के इस किस्से को किस रूप में देखना है यह आप पर निर्भर करता है, बस सवाल इतना है कि क्या आज हम ऐसा सोच भी सकते हैं?
झारखण्ड राज्य के बोकारो ज़िला के चंद्रपुरा प्रखंड के तुरिया ग्राम से जे एम रंगीला ,मोबाइल वाणी के माध्यम से हरकलाल महतो से बातचीत की। ये कहते है कि पलटीमार नेता लाचार रहते है। लाचार हो कर ही नेता पलटी मारते है। जिस पार्टी में सालों से रहते है ,वहां मानसम्मान नहीं मिलने पर वो दूसरी पार्टी में जाते है। जिस पार्टी में नेता को मदद मिलेगा वही जाने का प्रयास करते है ,लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। दूसरे दल में जाने से होता है कि नेता दूसरे के अधीन हो जाते है। नेता नहीं जानते की वहां उन्हें सम्मान मिलेगा या नहीं ,तब भी वो पार्टी में पहचान बनाने पर रहते है। जिससे वो लोगों को मदद कर सके। नेता प्रयास तो करते है लोगों की मदद करने का पर पार्टी की सहायता नहीं मिलने पर कुछ नहीं हो पाता है। इस कारण राजनीति में जीरो की स्थिति में पहुँच जाते है
समाज कि लड़ाई लड़ने वाले लोगों के आदर्श कितने खोखले और सतही हैं, कि जिसे बनाने में उनकी सालों की मेहनत लगी होती है, उसे यह लोग छोटे से फाएदे के लिए कैसे खत्म करते हैं। हालांकि यह पहली बार नहीं है जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति ने इस तरह काम किया हो, नेताओं द्वारा तो अक्सर ही यह किया जाता रहा है। हरियाणा के ऐसे ही एक नेता के लिए ‘आया राम गया राम का’ जुमला तक बन चुका है। दोस्तों आप इस मसले पर क्या सोचते हैं? आपको क्या लगता है कि हमें अपने हक की लड़ाई कैसे लड़नी चाहिए, क्या इसके लिए किसी की जरूरत है जो रास्ता दिखाने का काम करे? आप इस तरह की घटनाओं को किस तरह से देखते हैं, इस मसले पर आप क्या सोचते हैं?
हमारे श्रोता ,मोबाइल वाणी के माध्यम से कहते है कि सरकार का फैसला जिसमे दूकान के बाहर नाम ,पता ,धर्म लिखवाना है ,इससे यह प्रतीत होता है कि सरकार विशेष वर्ग का आर्थिक बहिष्कार कर रही है। सरकार को सोचना चाहिए की भारत शुरू से धर्म निरपेक्ष देश है।
उत्तरप्रदेश राज्य के संत कबीर नगर से के सी चौधरी ,मोबाइल वाणी के माध्यम से कहते है कि सरकार के निर्देश अनुसार कांवरियों के लिए धर्म जात का भेदभाव किया जा रहा है। सभी धर्म को सामान नज़र से देखना चाहिए। जो भी कांवरियों के बीच में फल सब्ज़ी या खानपान के दूकान लगेंगे तो दूकान के सामने अपना धर्म ,जात नाम का बैनर लगाया जाएगा। इससे लोगों में गलत धारणा जाएगी। सभी को सामान नज़र से देखा जाए। किसी के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। इसमें सरकार को अपना नज़रिया बदलना होगा
भारतीय संविधान किसी के आर्टिकल 14 से लेकर आर्टिकल 21 तक समानता की बात कही है, इस समानता धार्मिक आर्थिक राजनीतिक और अवसर की समानता का जिक्र किया गया है। इस समानता किसी प्रकार की जगह नहीं है और किसी को भी धर्म, जाति और समंप्रदाय के आधार पर कोई भेद नहीं किये जाने का भी वादा किया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार के हालिया फैसले में साफ तौर पर देखा जा सकता है कि वह धर्म की पहचान के आधार भेदभाव पैदा करने की कोशिश है।दोस्तों आप इस मसले पर क्या सोचते हैं? क्या आप सरकार के फैसले के साथ हैं या फिर इसके खिलाफ, जो भी हो इस मसले पर आपकी क्या राय है? आप इस मसले पर जो भी सोचते हैं अपनी राय रिकॉर्ड करें
मोटाभाई ने महज एक शादी में जितना खर्च किया है, वह उनकी दौलत 118 बिलियन डॉलर का 0.27 है। जबकि उनकी दौलत कृषि संकट से जूझ रहे देश का केंद्रीय बजट का 7.5 प्रतिशत से भी कम है। जिस मीडिया की जिम्मेदारी थी कि वह लोगों को सच बताएगा बिना किसी का पक्ष लिए, क्या यह वही सच है? अगर हां तो फिर इसके आगे कोई सवाल ही नहीं बनता और अगर यह सच नहीं तो फिर मीडिया द्वारा महज एक शादी को देश का अचीवमेंट बताना शुद्ध रूप से मुनाफे से जुड़ा मसला है जो विज्ञापन के रुप में आम लोगों के सामने आता है। क्योंकि मीडिया का लगभग पचास प्रतिशत हिस्सा तो मोटाभाई का खुद का है और जो नहीं है वह विज्ञापन के लिए हो जाता है "कर लो दुनिया मुट्ठी में” की तर्ज पर। दोस्तों, इस मुद्दे पर आप क्या सोचते है ?अपनी राय रिकॉर्ड करें मोबाईलवाणी पर, अपने फोन से तीन नंबर का बटन दबाकर या फिर मोबाईल का एप डाउनलोड करके।
हमारे श्रोता ,मोबाइल वाणी के माध्यम से कहते है कि धर्म का प्रचार करना बुरा नहीं है। कुछ दिनों पहले बाबा के कार्यक्रम में भीड़ जुटी और किसी कारण भगदड़ मची जिसमे कई लोग घायल हो गए। इसमें प्रशासन की लापरवाही अधिक होती है। ऐसे कार्य प्रयोजन में प्रशासनिक अनुमति ली जाती है और अनुमति में दर्शाया जाता है कि कितनी भीड़ इस कार्यक्रम में होगी। पर प्रशासनिक अमला अनुमति तो दे देती है पर निगरानी नहीं रखती है। जिस वजह से इस तरह की घटनाएँ अक्सर सुनने को मिलता है। जहाँ भगदड़ मची थी वह अनुमति से अधिक लोगों की भीड़ हो गई थी ,अगर प्रशासन इसकी निगरानी रखता तो इस तरह का घटना नहीं होता। किसी व्यक्ति को धर्म का प्रचार प्रसार करने पर रोक नहीं है पर कार्यक्रम आयोजित करते वक़्त नियमों की देखरेख करना ज़रूरी है।