हमारी सूखती नदियां, घटता जल स्तर, खत्म होते जंगल और इसी वजह से बदलता मौसम शायद ही कभी चुनाव का मुद्दा बनता है। शायद ही हमारे नागरिकों को इससे फर्क पड़ता है। सोच कर देखिए कि अगर आपके गांव, कस्बे या शहर के नक्शे में से वहां बहने वाली नदी, तालाब, पेड़ हटा दिये जाएं तो वहां क्या बचेगा। क्या वह मरुस्थल नहीं हो जाएगा... जहां जीवन नहीं होता। अगर ऐसा है तो क्यों नहीं नागरिक कभी नदियों-जंगलों को बचाने की कवायद को चुनावी मुद्दा नहीं बनाते। ऐसे मुद्दे राजनीति का मुद्दा नहीं बनते क्योंकि हम नागरिक इनके प्रति गंभीर नहीं हैं, जी हां, यह नागरिकों का ही धर्म है क्योंकि हमारे इसी समाज से निकले नेता हमारी बात करते हैं।

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रचना ठोस व्रत तथा तीनों हो सकता माध्यम पर ध्वनि के साथ निर्भर करता है

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पेड़ पौधे भी एक संजीव करनी है जिस तरह मनुष्य को कट चढ़ जाने पर दर्द होता है इस तरह हरे भरे पौधों को भी काटने से दर्द होता है

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कचरा नहीं जमा करना चाहिए अगर प्लास्टिक है तो उसे जला दिया जाता है और सड़ने वाला जो कचरा रहता है उस उर्वरक तैयार होता है जो कि हमारे जमीन को फायदा होता है

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