जिन इमारतों की उंचाइयां देखकर हमारी आंखें चौंधिया जाती हैं, जिन माॅल और पार्कों की खूबसूरती देखकर हम खुद पर फर्क किए बिना नहीं रह पाते, जिन रास्तों पर चलते हुए हमें मखमली एहसास होते हैं असल में महानगरों की ये सारी विलासिता श्रमिकों के खून पसीने से सींची गई है. कितनी अजीब बात है ना, कि हमारे विकास का द्वार खोलने वाले श्रमिकों के विकास के रास्ते हम ही नें बंद कर रखे हैं. यह बात इस समय और भी ज्यादा गंभीर है, क्योंकि देश कोरोना काल में जी रहा है. संकट के इस दौर को एक वर्ग ने छुट्टियां मनाने का बहाना समझा है और एक वर्ग है जो इस दीर्घकालीन अवकाश से घबराया हुआ है. शहर एक बार फिर बंद हो रहे हैं और उन्हें संवारने वाले मजदूर के सामने भूख-प्यास का संकट है. बीते एक साल में श्रमिकों ने कई बार खुद को ढांढस बंधाया है पर सरकार यह भरोसा पैदा नहीं कर सकी कि उनके साथ कुछ गलत नहीं होगा. प्रवास तब भी हुआ था, प्रवास आज भी हो रहा है. भेदभाव तब भी हुआ था, उलाहना आज भी हो रही है. बहरहाल आला नेताओं को श्रमिकों से क्या वास्ता. चुनावी रैलियों से फुर्सत मिले तो वे देश की समस्याओं पर गौर करें. कोरोना काल में जब आम जनता को संबंल की जरूरत है, तब दिग्गज कुर्सी की राजनीति में व्यस्त हैं. सरकार ने अपने चुनावी रुतबे को बरकरार रखने के लिए 44 श्रम कानूनों को खत्म करते हुए नए श्रम कानून को कुछ इस तरह थोपा कि मजदूर उसे सम्हाल ही नहीं पाए. कितनी अजीब बात है कानूनों में बदलाव का ये खेल तब खेला गया है जब देश का मजदूर कोरोना और बेरोजगारी की मार झेल रहा है और भूखे पेट वह विरोध करने की स्थिति में भी नहीं है. साथियों,आप सभी इस समय मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. पर सवाल ये है कि आखिर इस मुश्किल में सरकार का क्या फर्ज था? क्या आपको नहीं लगता कि सरकार को श्रमिकों के लिए संवेदनशील रवैया अपनाना चाहिए? क्या आपको नहीं लगता जितने लोग अस्पतालों में बिना ऑक्सीजन के मर रहे हैं, उतने ही लोग बेरोजगारी में भूखे पेट मौत की कगार पर खड़े हैं? क्या आपको नहीं लगता कि सरकार को इस समय श्रम कानूनों में बदलाव करने की बजाए श्रमिकों के लिए भोजन, अस्पताल और रोजगार की व्यवस्था करना चाहिए थी?