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प्रगतिशील विचारधारा रखने वाले लोग दुख को जीवन का संघर्ष मान कर उस से दो-दो हाथ करने की तैयारी रखते है, लेकिन धर्म व इश्वर की परिकल्पना के साथ जीने वाले लोग दुख का संबंध अपने भाग्य से जोड़ते है या फिर सारा दोष दूसरे पर या इश्वर पर मढ़ देत है। मैने अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में यही अनुभव किया है। आज हम बात करेंगे विचारों पर अनुशासन रख कर कैसे दुखों पर विजय पाकर आनंदमय रह सकते है । अकसर हम तब अपनी आसपास की परिस्थितियों का विश्लेषण करने लगते है जब हमारा सोचा हुआ काम पुरा नहीं होता है। हम असफल हो जाते है तो निश्चित ही उस समय हम बेहद दुखी होते है। और इस दुख का कारण भीतर की बजाए बहार ढूंढने लगते है। मैने कई बार देखा है धर्मभीरू लोग इस दुख के लिए ईश्वर को दोष देने लगते है।

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बीते सप्ताह हमने विवाह में कुरितीयां और परपंराओं पर बात की थी। इसे आगे बढ़ाते हुए इस सप्ताह सत्यशोधक विवाह क्या है, और क्या इसे कानूनी मान्यता है, वर्तमान में समाज में इस की आवश्यकता क्यों हैं पर बात करेंगे। भारत में देश आजाद होने के आठ साल बाद 18 मई 1955 को हिंदू विवाह काननू लाया गया था। इस कानून में विवाह योग्य भावी वर वधु इनके बीच होने वाला एक करार कहा गया था। इस के पूर्व डेढ सौं वर्ष पूर्व महात्मा ज्योतिबा फुले ने विवाह की परिभाषा में कबुलायत शब्द का उपयोग किया गया था और सत्येशोधक विवाह पद्यति की शुरूआत की गई थी।

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