आज कल लोग सीधे इंटरनेट से संगीत सुनना पसंद करते हैं. यू-ट्यूब और ऐसे ही दूसरे माध्यमों से संगीत की स्ट्रीमिंग होती है.लेकिन, पहले ऐसा नहीं था. कैसेट, सीडी और रिकॉर्ड से संगीत का लुत्फ़ उठाया जाता था.पिछले कुछ सालों से इन पुराने माध्यमों ने फिर से बाज़ार में वापसी की है. विनाइल रिकॉर्ड की बिक्री में तो 2007 के बाद से 1427 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है. पिछले साल अकेले ब्रिटेन में ही 40 लाख एलपी रिकॉर्ड बिके.विनाइल रिकॉर्ड में आ रही बिक्री का मतलब ये है कि ये डिस्क बनाने का काम तेज़ होगा. दिक़्क़त ये है कि इन्हें रिसाइकिल नहीं किया जा सकता. मतलब ये कि इनकी बिक्री बढ़ने से पर्यावरण को नुक़सान ज़्यादा होगा.पीवीसी को नष्ट करने में सदियां गुज़र सकती हैं. यानी इनका कचरा नष्ट होने तक इंसानों की कई पीढ़ियां बीत जाएंगी. ये मिट्टी में मिलने पर ज़मीन को भी नुक़सान पहुंचाते हैं.आज जो रिकॉर्ड बनते हैं उनसे आधा किलो कार्बन डाई ऑक्साइड पर्यावरण मे मिलती है.ऐसे में केवल ब्रिटेन में 40 लाख एलपी रिकॉर्ड बिकने का मतलब है क़रीब 2 हज़ार टन कार्बन डाई ऑक्साइड पर्यावरण में घुली. इसके अलावा इन रिकॉर्ड को लाने-लेजाने के दौरान जो प्रदूषण हुआ सो अलग.

यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) के नए दिशा-निर्देश के मुताबिक देशभर के महिला अध्ययन केंद्रों को दी जाने वाली धनराशि में भारी कटौती की गई है। जानकारों के मुताबिक यूजीसी के नए दिशा-निर्देश से भारत में विमेंस स्टडीज विषय ही खतरे में आ गया है। बता दें कि महिला अध्ययन की शुरुआत 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत की गई थी। देशभर में तकरीबन 200 महिला अध्ययन केंद्र चल रहे हैं जो विमेंस स्टडीज को एक अलग और स्वतंत्र विषय के रूप में पहचान दे रहे हैं। विमेंस स्टडीज विश्व भर में एक स्वतंत्र विषय के रूप में मजबूती से स्थापित हो चुका है, जिसकी नींव 60 और 70 के दशकों में ही पड़नी शुरू हो गई थी। हालांकि भारत में इसका आगमन थोड़ा बाद में हुआ, लेकिन समय के साथ-साथ महिला अध्यन में रुचि दिखाने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। समाज को एक बेहतर दिशा देने के लिए ऐसे केंद्रों में निवेश बढ़ाने की जरूरत है न कि कटौती करने की। इसके साथ ही महिला अध्यन के विषय पर पूर्णकालिक डिग्री कोर्स शुरू करके इसे रोज़गार संबंधित शिक्षा के रूप में विकसित करने की ज़रूरत है। क्या आपको लगता है कि बदलते समाज की बारीकियों को समझने के लिए नए-नए विषय पढ़ाए जाएं और शिक्षा के नए केंद्र स्थापित किए जाएं तो बेहतर समाज के निर्माण के साथ साथ रोज़गार के भी नए मौके पैदा हो सकेंगे? महिला अध्ययन केंद्रों के विषय पर अपने विचार साझा करें।

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अन्ना आंदोलन के बाद साल 2014 लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार अहम मुद्दा था, लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव में रोजगार सबसे अहम मुद्दा होने वाला है. इसका दावा चुनावी आंकड़ों पर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म्स की रिपोर्ट में किया गया है. इस रिपोर्ट में यूपी में भी इस मुद्दे को सबसे अहम मुद्दा बताया गया है. लखनऊ में एडीआर की रिपोर्ट जारी की गई. एडीआर के मुताबिक इस बार रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाला है. हेल्थ दूसरा बड़ा मुद्दा होगा. इसी क्रम में लाॅ एंड आर्डर तीसरा सबसे बड़ा मुद्दा होने वाला है. सर्वे में भ्रष्टाचार अहम मुद्दों की लिस्ट में सबसे आखिरी स्थान पर है. यानी जनता भ्रष्टाचार से ज्यादा रोजगार को लेकर फिक्रमंद है. सर्वे में ये भी सामने आया कि अहम मुद्दों को लेकर जनता मौजूदा सरकार के परफाॅर्मेंस से संतुष्ट नहीं है. इसके अलावा एडीआर की रिपोर्ट में ये भी सामने आया है कि राजनीतिक पार्टियों में आपराधिक व आर्थिक रूप से मजबूत लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है. सभी दलों ने ऐसे लोगों को अपनाया है. उत्तर प्रदेश के 34 एमएलए की आय में 300 गुना की वृद्धि दर्ज की गई. कई विधायकों की औसत संपति 2007 में एक करोड़ रुपये थी. वह 2017 में बढ़कर सात करोड़ रुपये हो गई है. साथ ही फिर से चुनाव लड़ने वालों की आय में करीब 60 गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई. क्या वाकई रोजगार का मसला इस बार राज्य और केन्द्र सरकारों के लिए चुनाव हारने की वजह बन सकता है? आपकी नजर में नेताओं की संपत्ति में होता इजाफा और देश में कम होते रोजगार के अवसरों में क्या ताल्लुक हो सकता है? क्या आप या आपके आसपास कोई बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा है? यदि हां तो उनके विचार हम तक पहुंचाएं.

2014 लोकसभा चुनाव के दौरान वादा किया था कि अगर केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी तो हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार दिया जाएगा. अब जबकि कार्यकाल अब खत्म होने को है, ऐसे में लोग रोजगार को लेकर सवाल पूछ रहे हैं. इन सवालों के जवाब देने में सरकार भले ही चुप हो, लेकिन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट सब कुछ साफ—साफ बयां कर रही है. इस रिपोर्ट के अनुसार फरवरी 2019 में बेरोजगारी दर 7.2 फीसदी तक पहुंच गई है. हैरानी वाली बात यह है कि यह सितंबर 2016 के बाद की उच्‍चतम दर है. इसके पहले फरवरी 2018 में बेरोजगारी दर 5.9 प्रतिशत रही थी. फरवरी 2019 में देश के 4 करोड़ लोगों के पास रोजगार होने का अनुमान है, जबकि साल भार पहले यही आंकड़ा 4.06 करोड़ था. गौरतलब है कि सीएमआईई के आंकड़े देश भर के लाखों घरों के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. कई अर्थशास्त्रियों द्वारा इन आंकड़ों को सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले बेरोजगारी के आंकड़ों की तुलना में अधिक विश्वसनीय माना जाता है. 2017 के शुरुआती 4 महीनों में 15 लाख नौकरियां खत्म हो गई है. यानी नोटबंदी की सीधी मार लाखों लोगों के रोजगार पर पड़ी थी. सरकार अपनी नाकामी छिपाने की लाख कोशिशें कर ले, लेकिन इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद अब विवाद होना तय माना जा रहा है. क्या आप भी बेरोजगारी की समस्या से परेशान है? अपनी नजर में वे कौन से कारण है जो रोजगार की राह में परेशानी बन रहे हैं? आपको रोजगार के सरकारी दावों पर कितना यकीन है? यदि नहीं है तो आपकी नजर में कमी कहां रह गई है? हमारे साथ साझा करें अपने विचार.

भारत में रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं, यह तो जाहिर हो गया है. पर एक और दावा किया जा रहा है, वह यह कि भारतीय युवाओं की उभरते और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के प्रति सक्रीयता सबसे कम है. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के वरिष्ठ अर्थशास्त्री जॉन ब्लूडोर्न ने दावा किया है कि युवाओं में काम के अवसर उभरते और विकाशील अर्थव्यवस्थाओं में भारत में सबसे कम है और यह करीब 30 प्रतिशत है. अब हम बात करें चुनौतियों की तो इसमें सबसे अहम है श्रम बाजारों में स्त्री-पुरूष अंतर, प्रौद्योगिकी चुनौती और रोजगार में कामकाज की खराब गुणवत्ता. क्या आप इस दावे से सहमत है? क्या वाकई भारतीय श्रम बाजारों में युवाओं की रूचि कम हो रही है? यदि नहीं तो फिर क्या कारण है कि युवाओं के हाथ में रोजगार नहीं है? हमारे साथ साझा करें अपने विचार.

भले ही आज आपको पढ़ाई के क्षेत्र में बेटियों की संख्या बढ़ती हुई दिख रही है, लेकिन नौकरियों के मामले में उनकी संख्या हर साल कम होती जा रही हैं. यानि बेटियां उच्च शिक्षा तो ले र​ही हैं लेकिन नौकरी करने के मामले में पीछे हैं. वैसे तो उद्योग क्षेत्र की बदलती जरूरतों को देखते हुए देश में कौशल विकास को लेकर कई प्रयास किए जा रहे हैं. महिलाओें के कौशल विकास पर सरकार विशेष ध्यान है. हाल ही में जारी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार कार्यबल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 2018 में बेहद कम हुआ है. डेलॉइट की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2005 में जहां नौकरी-पेशा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी 36.7 प्रतिशत थी. वही 2018 में घटकर 26 प्रतिशत आ गई है. असंगठित क्षेत्र या बिना पारिश्रमिक वाले क्षेत्र में 19.5 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि देश ही नहीं दुनियाभर में रोजगार क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम होने की प्रवृत्ति देखी जा रही है. आपके अनुसार वे कौन से कारण है जो महिलाओं को नौकरी करने की राह में परेशानी पैदा कर रहे हैं? क्या आपने भी अपने आसपास महिलाओं को नौकरी छोड़ते देखा है? यदि हां तो उनके अनुभव और नौकरी छोड़ते से जुड़े कारणों की पड़ताल हमारे श्रोताओं के साथ साझा करें.

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गरियावंद कंसिघी से तारा ठाकुर की आपबीती प्रेरणा दायीं संघर्ष की गाथा