गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। हमारे यहाँ तो गुरू का स्थान भगवान से भी ऊपर माना गया है।पहले गुरु और शिष्य के बीच में केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था, बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में कार्य करता था और उनका उद्देश्य होता था शिष्य का समग्र विकास, शिष्य को भी यह विश्वास रहता था कि गुरु उसका कभी अहित सोच भी नहीं सकते।परन्तु आज के नए युग में ज्ञान से अधिक धन को महत्व दिया जाने लगा है। इसलिए अध्यापन भी आज एक व्यवसाय के रूप में नज़र आता है और आज छात्रों के हर प्रश्न का उत्तर इंटरनेट है।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है।क्या समय के साथ गुरु -शिष्य की परिभाषा बदल गई है?क्या संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है ? हमारी वर्तमान शिक्षा -पद्धति इस रिश्ते को कितना और कहाँ तक प्रभावित कर रही है ? क्या शिक्षकों को भी वह सम्मान मिल रहा है,जिसके वे हकदार हैं?क्या गुरु-शिष्य सम्बन्ध के ऊपर हमारे समाज को भी सोचने की आवश्यकता है ?