गीत- धीरे-धीरे लड़ते जाएं, जीवन के संग्राम। इसी तरह फिर आ जायेगी, कोई सिंदूरी शाम।। माना कि रास्ता मुश्किल है, छांव नहीं है कोई। चलते-चलते रुकने की भी, ठाँव नहीं है कोई। दर्द भरी बस्ती हैं सारी, नहीं खुशी की बातें, है आशा,जलते दिन ढलते, होंगी अच्छी रातें। कोई तो प्यासे होंठों पर, रख जाएगा जाम।। रोती आंखों को तो कब, खुशियों के स्वप्न मिले हैं। कब नाउम्मीदी से कोई, गहरे से जख्म सिले हैं। उम्मीदों के पौधों में ही, आशा फूल खिलेंगे। जब अच्छा ही सोचेंगे तब, सच्चे रंग मिलेंगे। तब ही तो निकलेंगे आख़िर, मनचाहे परिणाम।। वायव्य कवि अभिषेक प्रताप सिंह सूर्यवंशी