वह आयोग जो महिलाओं के लिए न्याय को सुनिश्चित बनाता है वही इन दिनों विवादों में घिरा हुआ है. दिल्ली महिला आयोग की हेल्पलाइन 181 में काम करने वाली महिला कर्मचारी इन दिनों विरोध प्रदर्शन पर उतर आईं हैं. दरअसल इस हेल्प लाइन की शुरुआत निर्भया कांड के बाद हुई थी. जिसे पहले आयोग की तरफ से संचालित किया जा रहा था लेकिन अब इसका निजीकरण कर दिया गया है. यानि हेल्पलाइन की बागडोर निजी कंपनी के हाथों में जा रही है. खास बात यह है कि कर्मचारियों को इस संदर्भ में कोई नोटिस नहीं दिया गया है न ही बदलाव की जानकारी दी गई. इसके अलावा उन पर अपने पुराने पद से इस्तीफा देने और फिर दोबारा नियुक्ति लेने का दवाब बनाया जा रहा है. महिला कर्मचारियों का कहना है कि यदि ऐसा होता है तो हमारे पास वह महिला अपराध का वह डाटा भी नहीं रहेगा जो साल 2012 से जमा किया जा रहा था. इसके साथ ही मासिक वेतन, पीएफ आदि की दिक्कतें भी आने वाली हैं. महिला कर्मचारियों की बात अब तक किसी आला अधिकारी ने नहीं सुनी है, इसलिए उन्होंने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है. क्या आपको नहीं लगता कि शासकीय हेल्पलाइन का निजी करण होने से उसकी विश्वसनीयता प्रभावित होगी? क्या महिला कर्मचारियों के साथ ही ऐसा बर्ताव होता है? हमारे साथ इस विषय पर साझा करें अपनी राय.

केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनियाभर के कृषि क्षेत्र में 40 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं काम करती हैं और घर के संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की है. एक और अच्छा पहलू यह है कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा सजग हैं. लेकिन इसका एक और छिपा हुआ हिस्सा है. दरअसल अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का सबसे अधिक असर कृषि और पानी पर पड़ता है, जिससे महिलाएं अधिक प्रभावित हो रही हैं. साल 2015 में वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक सजग हैं और पुरुषों की तुलना में आसानी से अपने जीवनचर्या को इसके अनुकूल बना सकती हैं. इसके बाद एक दूसरे अध्ययन में दुनिया भर के तापमान वृद्धि के आर्थिक नुकसान के आकलनों से संबंधित शोध पत्रों के विश्लेषण से यह तथ्य उभर कर सामने आया कि महिला वैज्ञानिक इन आकलनों को अधिक वास्तविक तरीके से पेश करती हैं और अपने आकलन में अनेक ऐसे नुकसान को भी शामिल करती हैं जिन्हें पुरुष वैज्ञानिक नजरअंदाज कर देते हैं या फिर इन नुकसानों को समझ नहीं पाते. अपनी नजर में महिला और पुरूष में से कौन हैं जो पर्यावरण के प्रति ज्यादा सजग हैं? क्या आपको नहीं लगता कि पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी समान रूप से उठानी चाहिए? आप जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण सरंक्षण के लिए अपनी तरफ से क्या योगदान दे रहे हैं? हमारे साथ साझा करें अपने विचार.

शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां महिलाएं पूरी जिम्मेदारी के साथ अपना काम करती नजर न आती हों? भले ही निजी सर्वेक्षण के अनुसार नौकरीपेशा महिलाओं की संख्या में कमी आ रही हो, लेकिन उनके प्रति विश्वास में कोई कमी नहीं है. ऐसा ही एक उदाहण त्रिपुरा में पेश हो रहा है. जहां आगामी लोकसभा चुनाव में 60 मतदान केन्द्रों की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर होगी. गौरतलब है कि भारत के निर्वाचन आयोग ने सीईओ को निर्देश दिया था कि प्रत्येक विधाभ्नसभा क्षेत्र में कम से कम एक महिला मतदान केंद्र स्थापित किया जाए. जिसके बाद केवल त्रिपुरा में ही 60 महिला मतदाता केन्द्र बनाएं गए हैं. यहां मतदान करने वालों में महिलाओं के साथ पुरूष भी शामिल होंगे लेकिन मतदान कराने से लेकर केन्द्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी तक सब कुछ महिलाओं के हाथ में होगा. क्या आपके क्षेत्र में भी महिला मतदाता केन्द्रों की स्थापना की गई है? आपके क्षेत्र में महिलाओं के मतदान करने का प्रतिशत कैसा है? हमारे साथ साझा करें अपनी बात.

हमारे देश में हर हिस्से में महिलाओं की स्थिति अलग—अलग है. कहीं पर महिला मतदाता केन्द्र बन रहे हैं और कई जगह मतदान केन्द्रों पर महिलाओं की संख्या न के बराबर है. ऐसा ही एक उदाहरण सामने आया है झारखंड के धनबाद में. जहां महिला मतदाता पुरूषों के साथ हर क्षेत्र में बराबरी का हक रखती हैं, लेकिन वोट करने के मामले में पीछे हैं. साल 2014 के चुनावों में धनबाद, गिरिडीह, दुमका, गोड्डा और राजमहल में औसत 53.64 फीसद महिलाओं ने ही वोट किया था. झारखंड के 14 लोकसभा सीटों में से धनबाद और गिरिडीह पर 12 मई और राजमहल, दुमका एवं गोड्डा में 19 मई को मतदान होने वाला है. जिसमें महिलाओं की भागीदारी अहम मानी जा रही है. लेकिन दूसरा तथ्य है कि साल 2019 में 50.03 फीसदी महिलाओं की ही चुनाव में भागीदारी नजर आने का अनुमान है. विशेषज्ञों का कहना है कि महिला मतदाताओं का प्रतिशत यदि 70 फीसदी तक पहुंचा तो यह निर्णय में अहम भूमिका निभा सकता है. आपके क्षेत्र में महिला वोटरों की स्थिति कैसी है? क्या महिलाएं मतदान करने जाती हैं, या उनकी भागीदारी ना के बराबर है? इस विषय पर हमारे साथ साझा करें अपना अनुभव.

Transcript Unavailable.

ओडिशा के पुरी में 75 महिलाएं एक मैंग्रोव जंगल को बचाने की मुहिम चला रही हैं। ये महिलाएं बीते 20 साल से रोज लकड़ी की तस्करी करने वालों से जंगल की रखवाली में जुटी हुई हैं। दरअसल साल 1999 में ओडिशा में एक प्रभावशाली चक्रवात आया था। इसमें सैकड़ों घर, फसलें तबाह हो गईं। लोगों को कई दिन बिना खाने-पानी के रहना पड़ा। उस दौरान पुरी जिले के गुंडाबेला गांव में रहने वाले लोगों को अहसास हुआ कि उनकी जिंदगी पेड़ों यानी इलाके के मैंग्रोव जंगल के कारण ही बची है। हर हाल में जंगल की सुरक्षा करने का संकल्प लिया गया और महिलाओं ने एक समूह बनाया। ये महिलाओं करीब 185 एकड़ में फैले जंगल की दिन में दो बार गश्त लगाती हैं। पेड़ों के बीच से गुजरते वक्त महिलाएं सीटी बजाते और डंडा पटकते हुए गुजरती हैं ताकि कोई पेड़ काटने वाला समय रहते वहां से निकल जाए। ये महिलाएं रोज की गश्त खत्म कर आसपास के गांवों में जाकर जंगल बचाने के फायदे समझाती हैं। महिलाएं बताती हैं कि जंगल से लकड़ी लाने के लिए महीने का एक दिन सुनिश्चित करें। इससे न केवल जंगल बचेगा बल्कि समय की भी बचत होगी। गांवों की महिलाएं पेड़ों की अवैध रूप से कटाई करने वालों को पकड़कर कर पीटाई भी करती हैं, जिससे कि अब पेड़ों की अवैध रूप से कटाई रुक गई है।

पिछले 14 सालों में देश की करीब 5 करोड़ों ग्रामीण महिलाएं अपनी नौकरियां छोड़ चुकी हैं। 2004-05 से शुरू हुए इस सिलसिले के तहत साल 2011-12 में नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी सात प्रतिशत तक कम हो गई थी। इसके चलते नौकरी तलाशने वाली महिलाओं की संख्या घट कर 2.8 करोड़ के आसपास रह गई। ये आंकड़े एनएसएसओ की पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 की रिपोर्ट पर आधारित हैं जिन्हें जारी करने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी है। इंडियन एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक, एनएसएसओ की पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 की रिपोर्ट में, यह संख्या 15-59 आयु वर्ग की कामकाजी महिलाओं में अधिक है। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2004-05 की तुलना में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 49.4 फीसदी से घटकर 2017-18 में 24.6 फीसदी रह गई। बता दे कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत की श्रमशक्ति में यदि महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो इससे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। हालांकि इसके विपरीत एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि शिक्षा में उच्च भागीदारी की वजह से महिलाएं नौकरियों से बाहर हो रही हैं, लेकिन इस एक कारण से इतनी बड़ी संख्या में भागीदारी कम होने को सही नहीं ठहराया जा सकता। तो श्रोताओं, आपके मुताबिक महिलाओं के नौकरियों से बाहर होने के मुख्य कारण क्या हैं? अपने विचार हमारे साथ साझा करें।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से समाज में कितने सकारात्मक बदलाव आ सकते हैं, इस बात का प्रमाण हमें भारत की पूर्व महिला सांसदों के बारे में जान कर बाखूबी मिल सकता है। आज़ादी के बाद पहली लोकसभा में बिहार से दो महिला सांसद जीत कर पहुंची थीं। इनमें से एक थी भागलपुर दक्षिण से सुषमा सेन। उन्होंने बिहार में पर्दा प्रथा खत्म करने के लिए जोरदार अभियान चलाया। कैंब्रिज से शिक्षित सुषमा ने अपने राजनीतिक जीवन में बाल विवाह, दहेज प्रथा और जातिवाद की समाप्ति के लिए प्रयास किए। उन्होंने पटना में तीन बाल कल्याण केंद्र खुलवाए। सुषमा सेन का जन्म कोलकाता में 25 अप्रैल 1889 को हुआ था। उन्होंने लोरेटो हाउस कोलकाता, दार्जिलिंग और लंदन के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी। बंगाल विभाजन के बाद वे महात्मा गांधी के प्रभाव में आईं और उनके स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गईं। 1910 में लंदन में मताधिकार के लिए महिलाओं के आंदोलन में भी शिरकत की। वे चाइल्ड वेलफेयर कमेटी, बिहार कौंसिल ऑफ वूमेन की भी अध्यक्ष रहीं। महिला अधिकार और बच्चों के लिए उन्होंने कई काम किए। तो श्रोताओं, इतिहास गवाह है कि महिलाएं राजनीति में आकर कितने सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं, फिर भी राजनीति की राह महिलाओं के लिए आसान नहीं है। आपके मुताबिक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए क्या कुछ किया जाना चाहिए ?

जब दुनिया के करीब 19 देशों की महिलाएं मतदान का अधिकार पाने के लिए जनांदोलन कर रही थी, उस दौर में भारत का पहला लोकसभा चुनाव जीतकर 24 महिलाएं बतौर सांसद संसद पहुंची थीं। जी हां, हम बात कर रहे हैं 1951-52 में हुए भारत के पहले लोकसभा चुनाव लोकसभा की। इस दौर में दुनिया के करीब 19 देश ऐसे थे, जहां पर महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं था। वहीं, 1950 में लागू हुए भारतीय संविधान ने पहले दिन से महिलाओं को न केवल मतदान करने बल्कि चुनाव लड़ने का अधिकार भी दिया। 1951 में हुए भारत के पहले लोकसभा चुनाव के बाद 19 देशों ने अपनी महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया। दुनिया में सबसे पहले महिलाओं को मताधिकार 1893 में दिया गया था। श्रोताओं, आप भी बताएं कि आधी आदाबी यानि कि महिलाएं को मताधिकार मिलने से लोकतांत्रिक वय्वस्था कितनी सशक्त हुई है? अपने विचार रिकॉर्ड करवाएं।

लोकसभा के महापर्व पर चुनाव आयोग की तरफ से लोगों को जागरुक करने के साथ साथ मतदाताओं को आर्कषित करने के नये-नये तरीके अपनाये जा रहे हैं। चुनाव के दौरान इस बार पिंक बूथ मतदाताओं को आकर्षिक करेंगे। पिंक बूथ में तमाम कर्मचारी और अधिकारी महिलाएं होगीं जो उस बूथ के तमाम वोट डलवाने का काम करेंगी। पिंक बूथ का मकसद महिला मतदाताओं को मतदान दौरान सुरक्षित व्यवस्था भी प्रदान करना है, ताकि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं मतदान करें। बात करें गुरूग्राम लोकसभा क्षेत्र की तो यहां कुल 9 विधानसभाओं में कम से कम एक-एक पिंक बूथ बनाये जायेंगे। इन पिंक बूथों पर महिला कर्मचारी और अधिकारियों को ट्रेनिंग देने के लिए में जिला प्रशासन जुटा हुआ है।