सरकारी विद्यालय के बच्चों को एक वक्त का भरपेट भोजन मिले साथ ही उसे कुपोषण से भी मुक्ति दिलाया जा सके इसी उद्देश्य के साथ सरकार ने महत्वाकांक्षी योजना मिड डे मील की शुरुआत की थी लेकिन यह योजना वर्तमान समय में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है जहां तक इस योजना में कार्य कर रहे रसोइए की है तो इन्हें पारिश्रमिक के रूप में सरकार द्वारा निर्धारित दैनिक भत्ता भी नहीं दिया जाता राज्य में लगभग ढाई लाख की संख्या में रसोई में कार्यरत हैं रसोइए की आमदनी पर उनका परिवार निर्भर करता है एक तो महज 12 साल की राशि प्रतिमाह निर्धारित की गई वह भी नियमित रूप से नहीं मिलता है सरकार की यह नीति पूरी तरह से दोषपूर्ण है मानदेय निर्धारित करने से पूर्व या विचार करना चाहिए कि उन्हें दैनिक भत्ता के अनुरूप मानदेय दे रहे हैं अथवा नहीं

रवि कुमार सिंह ने बताया कि जो महिला मिड डे मील में कार्य कर रही है उनका वेतन में इजाफा होना चाहिए और सरकारी सुविधा भी कुछ ना कुछ मिलना चाहिए

बिहार राज्य के मुंगेर जिले से सुबोध गिरी जी ने मुंगेर मोबाईल वाणी की ओर से रसोईया जयमाला देवी से बातचीत की। बातचीत के दौरान यह बताया गया कि सरकार विद्यालय में काम करने वाली रसोईया को उचित मजदूरी नहीं दिया जा रहा हैं. इसके अलावा और एक रसोईया अभिनय कुमार जी ने बताया कि मात्र ₹12 में रसोईया को काम कराना सरकार की गैर जिम्मेदाराना रोल अदा कर रही है.उन्होंने बताया की सरकार के खिलाफ बहुत बार आवाज भी उठाया गया ,धरना भी दिया गया लेकिन भी किसी तरह का सुधार नहीं किया गया है।अभिनय कुमार जी का कहना है कि 12 महीने काम करने के बावजूद मात्र 10 माह का वेतन दिया जाता है. महिलाओं को जो विशेष छुट्टी मिलती है उनको नहीं दी जाती है ,सरकार हर हाल में रसोईया का शोषण कर रही है.

rasoiya Ka mandey mein bhedbhow

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शिक्षा का मंदिर, जहां हम अपने बच्चों को यह सोचकर भेजते हैं कि उसे अच्छी तालीम मिलेगी, अच्छे संस्कार मिलेंगी और कम से कम एक वक्त तो भरपेट भोजन मिल सकेगा. पर क्या कभी सोचा है उन लोगों बारे में जो हमारे बच्चों को पोषण दे रहे हैं? जैसे मां घर में अपने बच्चे के खाने का ख्याल रखती है वैसे ही मिड डे मील योजना के तहत देशभर में 30 खानसामे हैं जिन पर उनकी सेहत बनाएं रखने की जवाबदेही है. सबसे खास बात यह है कि इस जिम्मेदारी को निभाने वाली ज्यादातर महिलाएं हैं. क्योंकि इस नए भारत में खाना बनाना अभी भी महिलाओं की ही ड्यूटी समझी जाती है. खैर यदि बात करें, बिहार के बारे में तो यहां हर रोज एक करोड़ 20 लाख बच्चों को मिड-डे मील परोसा जा रहा है. जिसके लिए दो लाख 48 हज़ार कुक हैं जिसमें 85 फीसदी महिलाएं हैं. क़रीब 300 बच्चों का खाना बनाने के लिए हर महिला को एक महीने में महज 1250 रुपये मिलते हैं. वे 8 घंटे काम करती हैं पर न्यूनतम मजदूरी की भी हकदार नहीं हैं. वहीं दूसरी ओर बिहार के एक रेस्त्रां में काम करने वाले अप्रशिक्षित मज़ूदर की न्यूनतम आय 257 रुपये प्रतिदिन है और सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिश के अनुसार न्यूनतम वेतन 18 हज़ार रुपये प्रति माह है. यदि दोनों की तुलना की जाए तो मिड डे मील बनाने वाली महिलाओं को अप्रशिक्षित मजदूरों से 10 गुना कम मजदूरी दी जाती है. क्या आपको नहीं लगता कि हमारे बच्चों की सेहत बनाने वाली महिलाओं को खुद का पेट भरने के लिए ज्यादा मजदूरी की जरूरत है? स्कूल के बच्चों को सेहतमंद तो बना लिया पर खुद के बच्चों के लिए 12 रुपए में कितना पोषण आहार खरीद पाती हैं ये महिलाएं? यह उदाहरण साफ बताता है कि राज्य में महिला और पुरूषों के बीच न्यूनतम मजदूरी का अंतर आज भी बना हुआ है. आप इस बारे में क्या सोचते हैं? क्या खाना बनाने वाली महिलाओं की मजदूरी में इजाफा होना चाहिए? यदि हां तो कितना? इसके साथ ही हमें बताएं कि आपके क्षेत्र में मिड डे मील व्यवस्था की स्थिति कैसी है? अपने विचार हमारे साथ साझा करने के लिए अपने फोन में दबाएं नम्बर तीन. और इसके साथ ही सुनते रहें मोबाइल वाणी एप. आम आवाम की खास आवाज!