नमस्कार श्रोताओं!मैं सुजीत, एक बार फिर हाज़िर हूँ आपके बीच फ़रीदाबाद मज़दूर समाचार के साथ।आज हम बात करेंगे आपसे जनवरी-फ़रवरी, 2009 के दौरान दिल्ली स्थित यूनिस्टाइल मज़दूर फ़ैक्ट्री के सिलाई-कारीगरों को पीस रेट का भुगतान अत्यधिक कम दर से करने के कारण उनके द्वारा सामूहिक रूप से काम बंद कर संगठित विरोध के उपरांत उन्हें बढ़ी हुई दर से भुगतान करने की। श्रोताओं, कोरोना संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान और फिर हुए अनलॉक के बाद भी विभिन्न फैक्ट्रियों, कम्पनियों में कार्यरत कारीगरों को बाज़ार की मंदी का रोना रोते हुए उन्हें पीस रेट का भुगतान अत्यधिक कम दर से करना कोई नयी बात नहीं है। इन खबरों के माध्यम से हम आपको बस इतना बताना चाहते हैं कि कारीगरों को पीस रेट का भुगतान अत्यधिक कम दर से सिर्फ़ अभी ही नहीं किया जा रहा, बल्कि यह क्रम तो बहुत पहले से चला आ रहा है। हाँ, उसके पीछे के बहाने जरूर बदल जाते हैं, जैसे अभी कोरोना-संक्रमण के कारण छायी वैश्विक मंदी और माँग कम होने के कारण हो रहे घाटे का है। इसलिए इन बीत चुकी खबरों के माध्यम से हमें इतिहास में झांकते हुए उससे सबक़ सीखने और खुद को विपरीत परिस्थितियों के लिए तैयार रहने की सीख मिलती है।बी॰ 51, ओखला फ़ेज़ 1 स्थित यूनिस्टाइल मज़दूर कम्पनी में सिलाई कारीगर महीने में दो-तीन बार पीस रेट पर खींचतान के कारण काम बंद कर देते थे। एक बार मैनेजर ने कारीगरों से रेट पूछा तो उन्होंने हौज़री टॉप के लिए प्रति पीस 25 रुपए बताया, तो कम्पनी ने इसे 15 रुपए तय किया। इसपर सिलाई कारीगरों ने 30 जनवरी को काम बंद कर दिया। तब मैनेजर ने कहा कि काम बंद मत करो, मैं बात करता हूँ। दो घंटे बाद पूछने पर मैनेजर ने कहा कि अभी तय नहीं हुआ है। इसपर फिर कारीगरों ने काम बंद कर दिया। 31 जनवरी को सुबह चार घंटे काम करने के बाद जब मनचाहा रेट नहीं मिला, तो कारीगरों ने फिर काम बंद कर दिया। इसी तरह चार फरवरी तक कुछ भी काम नहीं हुआ। पाँच फ़रवरी को भी जब बारह बजे तक काम बंद रहा, तब जाकर कम्पनी ने पीस रेट बीस रुपए किया और फिर काम शुरू हुआ, लेकिन बाद में दिए साढ़े उन्नीस रुपए ही। जो रेट कम्पनी काग़ज़ों में चढ़ाती है, कारीगरों को उससे दो रुपए कम ही बताया जाता है। फ़ैक्ट्री में काम करने वाले दो सौ मज़दूरों में से दस को ही कम्पनी ने स्वयं रखा था तथा इन्हें ही सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन दिया जाता था और इनकी ही ईएसआई व पीएफ़ कटता था। धागा काटने वाली महिला मज़दूरों को आठ घंटे के अस्सी रुपए दिए जाते थे। शिफ़्ट सुबह नौ से रात आठ बजे की है और रात बारह बजे तक रोकते थे।इसके अतिरिक्त आप कभी भी सुन सकते हैं अपने मोबाइल में नम्बर आठ तीन दबाकर फ़रीदाबाद मज़दूर समाचार की विभिन्न कड़ियों को।

आज हम बात करेंगे सरकार द्वारा समय-समय पर लागू किए गए भू-अधिग्रहण क़ानूनों के प्रभावों की। चाहे नगर-महानगर की स्थापना की बात हो, चाहे सड़क-रेल-बंदरगाह या हवाई अड्डों का निर्माण, चाहे नदियों पर बांध बनें या फिर उनसे नहरें निकलें, चाहे कारख़ाने बनें या खदानें या फिर तेल और गैस के कुएँ, चाहे चाय-काफ़ी-रबर के बाग़ान या फिर खेती, फलों के बाग, भेड़-गाय-सूअर-मुर्गी पालन के लिए हज़ारों एकड़ में फैले फ़ॉर्म या फिर सेना की छावनियों और प्रशिक्षण तथा युद्धाभ्यास के लिए स्थान हों! इन सबमें एक बात समान है और वो है भूस्वामियों को उनकी ज़मीनों से वंचित कर देना, तरीक़ा चाहे जो भी हो! ये सारी कोशिशें एक तरह से अर्थव्यवस्था के विस्तार और उसकी मज़बूती की अनिवार्य आवश्यकताओं की आधारभूत अंग हैं।कोई भी अर्थव्यवस्था क़ानून के संरक्षण में ही अपना विकास कर पाती है। बीते वर्षों में अपनी ज़मीन से वंचित हो रहे ग्रामीणों ने कई विरोध-प्रदर्शन किए और इसे दबाने के लिए सत्ता पुलिस और सेना का प्रयोग करती रही। ये भू-अधिग्रहण क़ानून किसानों-दस्तकारों को बेहाल कर चुके हैं। यह समय गरीब मज़दूरों से अपने सम्बन्धों की डोर को और मज़बूत करने का और विभिन्न क़ानूनों की आड़ में इनका शोषण करनेवाली सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े होने का है। तो आइए इस भौतिकतावादी अर्थव्यवस्था में निहित शोषण के कारक तत्त्वों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ और सत्ता को इसमें बदलाव के लिए जगाएँ।