आज हम बात करेंगे सरकार द्वारा समय-समय पर लागू किए गए भू-अधिग्रहण क़ानूनों के प्रभावों की। चाहे नगर-महानगर की स्थापना की बात हो, चाहे सड़क-रेल-बंदरगाह या हवाई अड्डों का निर्माण, चाहे नदियों पर बांध बनें या फिर उनसे नहरें निकलें, चाहे कारख़ाने बनें या खदानें या फिर तेल और गैस के कुएँ, चाहे चाय-काफ़ी-रबर के बाग़ान या फिर खेती, फलों के बाग, भेड़-गाय-सूअर-मुर्गी पालन के लिए हज़ारों एकड़ में फैले फ़ॉर्म या फिर सेना की छावनियों और प्रशिक्षण तथा युद्धाभ्यास के लिए स्थान हों! इन सबमें एक बात समान है और वो है भूस्वामियों को उनकी ज़मीनों से वंचित कर देना, तरीक़ा चाहे जो भी हो! ये सारी कोशिशें एक तरह से अर्थव्यवस्था के विस्तार और उसकी मज़बूती की अनिवार्य आवश्यकताओं की आधारभूत अंग हैं।कोई भी अर्थव्यवस्था क़ानून के संरक्षण में ही अपना विकास कर पाती है। बीते वर्षों में अपनी ज़मीन से वंचित हो रहे ग्रामीणों ने कई विरोध-प्रदर्शन किए और इसे दबाने के लिए सत्ता पुलिस और सेना का प्रयोग करती रही। ये भू-अधिग्रहण क़ानून किसानों-दस्तकारों को बेहाल कर चुके हैं। यह समय गरीब मज़दूरों से अपने सम्बन्धों की डोर को और मज़बूत करने का और विभिन्न क़ानूनों की आड़ में इनका शोषण करनेवाली सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े होने का है। तो आइए इस भौतिकतावादी अर्थव्यवस्था में निहित शोषण के कारक तत्त्वों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ और सत्ता को इसमें बदलाव के लिए जगाएँ।