एक तरफ़ तो हम रोते हैं कि अगले दो-ढाई दशक के बाद हम पानी की बूंद-बूंद को तरसेंगे.मगर आज नदी-नालों-झीलों-बारिश की शक्ल में जो मीठा पानी उपलब्ध है उसे हम साफ़ करके महफ़ूज़ और जमा करने की बजाय उसमें दुनियाभर का गंद घोल रहे हैं और चीख़ भी रहे हैं कि हाय! हाय! हमारा पानी किसने ज़हरीला कर दिया.सब कहते हैं सिंधु नदी पाकिस्तान की जीवनरे खा है. सिंधु में तिब्बत से लेकर नीचे तक कम से कम आठ छोटे-बड़े दरिया और सैकड़ों नाले गिरते हैं.सबको मालूम है कि सिंधु दरिया ना हो तो पाकिस्तान रेगिस्तान हो जाए.जहां तक धरती और दरिया से अच्छे व्यवहार की बात है तो इसमें भारत हो या पाकिस्तान दोनों तरफ़ एक जैसी हरकतें हो रही हैं.भारतीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड कहता है कि गंगा और नर्मदा समेत देश के 445 में से 275 दरिया इतने प्रदूषित हो चुके हैं कि उनका पानी इंसानों के पीने के लायक़ नहीं. और कावेरी नदी के पानी से तो कई इलाक़ों में खेतों की सिंचाई भी ख़तरनाक हो चली है
21वीं सदी में भले महिला और पुरुषों की बराबरी की बात की जाती हो, लेकिन मुंबई के जेजे अस्पताल एवं मेडिकल कॉलेज इस बात से इत्फाक नहीं रखता है। हाल ही में कॉलेज के एक कल्चरल फंक्शन में लड़कियों को छोटे कपड़े पहनने के लिए साफ मना कर दिया गया। इतना ही नहीं, उनके वापस हॉस्टल आने के टाइम पर भी पाबंदी बढ़ा दी गई। कॉलेज में पढ़ रही छात्राओं का कहना है कि इस तरह का बर्ताव बिल्कुल गलत है, लेकिन कॉलेज के डीन का मानना है कि छात्राओं की सुरक्षा बनी रहे इस वजह से यह फैसला लिया गया था। इस बात पर छात्राओं ने आपत्ति जताई और इस बात का प्रदर्शन भी किया था। जेजे अस्पताल एवं मेडिकल कॉलेज के डीन के मुताबिक यह सर्कुलर उनको सबक सिखाने के लिए निकाला था, क्योंकि होली के पार्टी में कई छात्रों द्वारा छेड़छाड़ की गई थी। इस पाबंदी को जल्द ही हटा दिया जाएगा। श्रोताओं अक्सर महिलाओं के छोटे कपड़ों को उनकी सुरक्षा के लिए खतरा बता कर ऐसी पाबंदियां लगा दी जाती हैं, लेकिन क्या ऐसा होने से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध रुक सकते हैं, महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी दी जा सकती है? अपने विचार साझा करें।
पिछले 14 सालों में देश की करीब 5 करोड़ों ग्रामीण महिलाएं अपनी नौकरियां छोड़ चुकी हैं। 2004-05 से शुरू हुए इस सिलसिले के तहत साल 2011-12 में नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी सात प्रतिशत तक कम हो गई थी। इसके चलते नौकरी तलाशने वाली महिलाओं की संख्या घट कर 2.8 करोड़ के आसपास रह गई। ये आंकड़े एनएसएसओ की पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 की रिपोर्ट पर आधारित हैं जिन्हें जारी करने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी है। इंडियन एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक, एनएसएसओ की पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 की रिपोर्ट में, यह संख्या 15-59 आयु वर्ग की कामकाजी महिलाओं में अधिक है। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2004-05 की तुलना में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 49.4 फीसदी से घटकर 2017-18 में 24.6 फीसदी रह गई। बता दे कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत की श्रमशक्ति में यदि महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो इससे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। हालांकि इसके विपरीत एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि शिक्षा में उच्च भागीदारी की वजह से महिलाएं नौकरियों से बाहर हो रही हैं, लेकिन इस एक कारण से इतनी बड़ी संख्या में भागीदारी कम होने को सही नहीं ठहराया जा सकता। तो श्रोताओं, आपके मुताबिक महिलाओं के नौकरियों से बाहर होने के मुख्य कारण क्या हैं? अपने विचार हमारे साथ साझा करें।
बिहार के अररिया ज़िले में चुनाव दर चुनाव के बाद भी स्वास्थ्य विभाग की स्थिति सुधरने का नाम नहीं ले रही है। डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के पदस्थापन की स्थिति तो अरसे से चिंताजनक है। इस मायने में सदर अस्पताल सबसे अधिक उपेक्षित है। एक तरफ जहां अस्पताल में प्रति दिन ओपीडी रोगियों के सात सौ से पार होने का दावा विभागीय अधिकारी करते हैं। वहीं दूसरी तरफ पदस्थापित एमबीबीएस डॉक्टरों की संख्या दर्जन भर भी नहीं है। जिला स्वास्थ्य विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक जिले में सदर अस्पताल, फारबिसगंज अनुमंडल अस्पताल के अलावा दो रेफरल व सात प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। सभी अस्पतालों को मिला कर डॉक्टरों के कुल करीब 200 पद स्वीकृत हैं, लेकिन सदर अस्पताल सहित जिले भर में सिर्फ चार दर्जन के करीब डॉक्टर ही कार्यरत हैं।
उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में विक्रमजोत ब्लॉक में ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत अधिकारी सरकार की संचालित जनकल्याणकारी योजना मनरेगा में खेल कर रहे हैं। इसी के माध्यम से वे गरीब मजदूरों के हिस्से का धन की बंदरबांट में जुटे हैं। इसका उदाहरण ग्राम पंचायत खेमराजपुर के राजस्व गांव बेतावा में सामने आया है। यहां मनरेगा का कार्य श्रमिकों के बजाय मशीन से हो रहा है। जिम्मेदार मजदूरी का धन अपने चहेतों के खाते में भेज उसे निकलवा लेते हैं। ब्लॉक में 10 ग्राम पंचायतों के लगभग 50 गांव सरयू नदी के उस पार हैं। यहां मनरेगा कार्य के माध्यम मे कार्य दिखा कर सरकारी रकम की बंदरबांट का सिलसिला तेज हो गया है। क्योंकि वहां बाढ़ आने के बाद भौगोलिक परिस्थितियां बदल जाती हैं। इसका फायदा वे उठा कर कार्य को नदी की कटान में दिखा देते हैं। जांच-पड़ताल का भी कोई भय नहीं है क्योंकि इन क्षेत्रों में अधिकारियों की आवाजाही भी नहीं होती। स्थानीय ग्रामीणों ने जब इसका विरोध किया तो प्रधान और उनके समर्थक जेसीबी मशीन लेकर भाग खड़े हुए। बीडीओ ने बताया कि मनरेगा के तहत किसी भी प्रकार का कार्य मशीनों से कराया जाना अनुचित और गैरकानूनी है। अगर माझा क्षेत्र में मिट्टी पटाई का कार्य जेसीबी मशीनों से हुआ है तो संबंधित की जांच कर कार्रवाई की जाएगी। श्रोताओ, अगर आपके क्षेत्र में भी मनरेगा के तहत मशीनों से काम करवाया गया है या करवाया जा रहा है और नियमों का उल्लंघन हो रहा है तो आप अपना संदेश रिकॉर्ड करवाएं।
खबर शिमला से जहां, एक तरफ किसान और बागवान कृषि संकट के चलते निराश है, क्योंकि इसके चलते कृषि उत्पादन की लागत कीमत दिन प्रति दिन बढ़ रही है। दूसरी ओर मंडियों में किसानों और बागवानों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। किसान संघर्ष समिति ने कोटखाई के गुम्मा में बैठक आयोजित कर इस पर चिंता जताई। इस बैठक में लगभग 13 पंचायतों के बागवानों ने भाग लिया। इसमें किसानों और बागवानों की अलग-अलग समस्याओं पर चर्चा की गई। अधिकांश बागवानों ने कहा कि जब वो सेब और अन्य फलों को राज्य की विभिन्न मंडियों में बेचने के लिए ले जाते हैं, न तो उनको इसके उचित दाम मिलते हैं और कई सालों तक आढ़ती किसानों और बागवानों की बकाया राशि का भुगतान नहीं करते हैं। बैठक में किसान संघर्ष समिति क ओर स 7 अप्रैल को आढ़तियों की ओर से बकाया भुगतान को लेकर कड़ी रणनिती बनाने का ऐलान किया गया।
आज कल लोग सीधे इंटरनेट से संगीत सुनना पसंद करते हैं. यू-ट्यूब और ऐसे ही दूसरे माध्यमों से संगीत की स्ट्रीमिंग होती है.लेकिन, पहले ऐसा नहीं था. कैसेट, सीडी और रिकॉर्ड से संगीत का लुत्फ़ उठाया जाता था.पिछले कुछ सालों से इन पुराने माध्यमों ने फिर से बाज़ार में वापसी की है. विनाइल रिकॉर्ड की बिक्री में तो 2007 के बाद से 1427 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है. पिछले साल अकेले ब्रिटेन में ही 40 लाख एलपी रिकॉर्ड बिके.विनाइल रिकॉर्ड में आ रही बिक्री का मतलब ये है कि ये डिस्क बनाने का काम तेज़ होगा. दिक़्क़त ये है कि इन्हें रिसाइकिल नहीं किया जा सकता. मतलब ये कि इनकी बिक्री बढ़ने से पर्यावरण को नुक़सान ज़्यादा होगा.पीवीसी को नष्ट करने में सदियां गुज़र सकती हैं. यानी इनका कचरा नष्ट होने तक इंसानों की कई पीढ़ियां बीत जाएंगी. ये मिट्टी में मिलने पर ज़मीन को भी नुक़सान पहुंचाते हैं.आज जो रिकॉर्ड बनते हैं उनसे आधा किलो कार्बन डाई ऑक्साइड पर्यावरण मे मिलती है.ऐसे में केवल ब्रिटेन में 40 लाख एलपी रिकॉर्ड बिकने का मतलब है क़रीब 2 हज़ार टन कार्बन डाई ऑक्साइड पर्यावरण में घुली. इसके अलावा इन रिकॉर्ड को लाने-लेजाने के दौरान जो प्रदूषण हुआ सो अलग.
घर के अंदर का वायु प्रदूषण दूसरा सबसे बड़ा हत्यारा है, जो भारत में हर साल लगभग 13 लाख मौतों का कारण बनता है.यह एक गंभीर स्वास्थ्य जोखिम है, और भारत जैसे देश में, जहां घर के अंदर खाना पकाने से लेकर हानिकारक रसायनों और अन्य सामग्रियों के कारण मकान के अंदर की हवा की गुणवत्ता भी खराब हो जाती है और यह बाहरी वायु प्रदूषण की तुलना में 10 गुना अधिक नुकसान कर सकती है. खराब वेंटिलेशन से फेफड़ों के कामकाज में कठिनाई सहित कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं. स्थिति इस नाते और खराब हो रही है, क्योंकि भारत में घर के अंदर हवा की गुणवत्ता पर कोई पुख्ता नीति नहीं है, जिस कारण इसके वास्तविक प्रभाव को मापना मुश्किल है.घर के अंदर प्रदूषण के कुछ दुष्प्रभावों में आंखों, नाक और गले में जलन, सिरदर्द, चक्कर आना और थकान शामिल है. इसके अलावा, यह लंबी अवधि में हृदय रोग और कैंसर का कारण बन सकता है.
दुनियाभर में 18 साल से कम उम्र के लगभग 93 फीसदी बच्चे प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की वायु प्रदूषण और बच्चों के स्वास्थ्य पर जारी एक नई रिपोर्ट में यह बात सामने आई है.'वायु प्रदूषण और बाल स्वास्थ्य, स्वच्छ वायु निर्धारित करना' नाम से जारी इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2016 में वायु प्रदूषण से होने वाले श्वसन संबंधी बीमारियों की वजह से दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के करीबन 5.4 लाख बच्चों की मौत हुई थी.नई रिपोर्ट के मुताबिक, पांच साल से कम उम्र के 10 बच्चों की मौत में से एक बच्चे की मौत प्रदूषित हवा की वजह से हो रही है. डब्लूएचओ की इस रिपोर्ट पर ग्रीनपीस इंडिया ने कहा कि डब्लूएचओ के डाटा ने एकबार फिर से साबित किया है कि गरीब और मध्यम आय वर्ग के लोग देश में बाहरी और घरेलू दोनों तरह के वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा प्रभावित है. यह चिंताजनक है कि भारत जैसे देश में लगभग पूरी जनसंख्या डब्लूएचओ और राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों से अधिक प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है.
यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) के नए दिशा-निर्देश के मुताबिक देशभर के महिला अध्ययन केंद्रों को दी जाने वाली धनराशि में भारी कटौती की गई है। जानकारों के मुताबिक यूजीसी के नए दिशा-निर्देश से भारत में विमेंस स्टडीज विषय ही खतरे में आ गया है। बता दें कि महिला अध्ययन की शुरुआत 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत की गई थी। देशभर में तकरीबन 200 महिला अध्ययन केंद्र चल रहे हैं जो विमेंस स्टडीज को एक अलग और स्वतंत्र विषय के रूप में पहचान दे रहे हैं। विमेंस स्टडीज विश्व भर में एक स्वतंत्र विषय के रूप में मजबूती से स्थापित हो चुका है, जिसकी नींव 60 और 70 के दशकों में ही पड़नी शुरू हो गई थी। हालांकि भारत में इसका आगमन थोड़ा बाद में हुआ, लेकिन समय के साथ-साथ महिला अध्यन में रुचि दिखाने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। समाज को एक बेहतर दिशा देने के लिए ऐसे केंद्रों में निवेश बढ़ाने की जरूरत है न कि कटौती करने की। इसके साथ ही महिला अध्यन के विषय पर पूर्णकालिक डिग्री कोर्स शुरू करके इसे रोज़गार संबंधित शिक्षा के रूप में विकसित करने की ज़रूरत है। क्या आपको लगता है कि बदलते समाज की बारीकियों को समझने के लिए नए-नए विषय पढ़ाए जाएं और शिक्षा के नए केंद्र स्थापित किए जाएं तो बेहतर समाज के निर्माण के साथ साथ रोज़गार के भी नए मौके पैदा हो सकेंगे? महिला अध्ययन केंद्रों के विषय पर अपने विचार साझा करें।