शिक्षा का अधिकार, वह कानून जिसके लागू होने से देशवासियों को उम्मीद बंधी थी कि शायद अब गरीबी—अमीरी का भेद खत्म होगा और सभी को समान रुप से शिक्षा मिल सकेगी. लेकिन कानून लागू होने के बाद से अब तक यह धारणा काल्पनिक ही बनी हुई है. झुग्गियों के बच्चे आज भी गलियों में ही घूम रहे हैं और सम्पन्न परिवारों के बच्चे बहुमंजिला इमारतों के एसी कमरों में पढ़ाई कर रहे हैं. आरटीआई के नाम पर जिन गरीब बच्चों को नामचीन स्कूलों में दाखिला मिला भी था तो उन्हें वहां समान दृष्टि से नहीं देखा गया. खैर अब सरकार के इस प्रयास की सच्चाई को एक गैर सरकारी संगठन के अपने दावों के जरिए खारिज कर दिया है. इंडस एक्शन ने दस हजार से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया है. जिसमें पता चला है कि पूरे देश में अभी भी लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदख़ल हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि यह मात्र प्रशासनिक लापरवाही, सरकारों की उदासीनता का मसला नहीं है बल्कि कानून में भी कुछ नीतिगत समस्याएं हैं. शिक्षकों की संख्या और योग्यता के बारे में, इसके लिए कानून में विशेष प्रावधान तय किए गए हैं, किन्तु इन प्रावधानों का पालन नही हो पा रहा है. स्कूलों में गरीब बच्चों के प्रति नजरिया अब भी सकारात्मक नहीं है और उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है. आरटीआई का कानून अंजाने में ही सही लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा दे रहा है. नेशनल कोलिएशन फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट के अनुसार जब से यह कानून लागू हुआ है तब से अब तक राजस्थान में 17120, महाराष्ट्र में 14 हजार, गुजरात में 13 हजार, कर्नाटक में 12 हजार और आंध्रप्रदेश में 5 हजार स्कूल बंद हो चुके हैं. जिससे साफ है कि सरकारें ही शिक्षा के इस निजीकरण की प्रक्रिया को मजबूत बना रही है. क्या आप भी शिक्षा के अधिकार कानून की खामियों का सामना कर रहे हैं? यदि हां तो हमें बताएं कि इस कानून के तहत एडमिशन लेने वाले छात्रों को किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है?