साथियों हम कहां रहते हैं? चारों ओर दीवारों से बने एक जाल में , एक ऐसे मकान में जहाँ अगर हम अपने कमरे की खिडकियां खोले तो दूर तक दिखाई देता है कंक्रीट का जंगल. जहां भीड है, शोर है, प्रदूषण है, तनाव है और चारों ओर इमारतें ही इमारतें. असल मायनों में यदि किसी ने जंगल को जिया है तो वे हैं झारखंड के आदिवासी. जिनकी रूह तक में जंगल ही बसता है. पर विकास की नै परिभाषा के नाम पर सरकार ने एक पांसा फेंका...! जिसका नाम है— झारखंड भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक. जिसे पिछले साल ही राष्ट्रपति से मंजूरी मिल गई है और मामला बस राज्य और केन्द्र के बीच अटका हुआ है. और इसी के साथ अटकी हैं झारखंड प्रदेश के आदिवासियों की सांसे. वे घबराए हुए हैं ये सोचकर कि क्या होगा जब सुबह आंख खुलेंगी और पेडों की छांव उनके सिर पर नहीं होगी? और इसके साथ ही रातों रात हाशिए पर खड़ा आदिवासी विकास की इस नई परिभाषा के साथ मुख्य धारा में शामिल होे जाएगा? उनकी जरूरतें जंगलों से ही पूरी हो रही हैं लेकिन विकास के नाम पर अब उसी जंगल को छीनने की जंग जारी है. आदिवासी सेंगल अभियान और दूसरे संगठनों ने इस मसले पर हाहाकार मचा दी है. चुनाव का माहौल है तो पार्टियां भी इस मसले को अपने तरीके से भुनाने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन हम आपसे जानना चाहते हैं कि इस पूरे शोर के बीच आप या हमारे राज्य की आम जनता क्या सोचती है, जिसने अपनी कई नस्लें जंगलों के भरोसे जी हैं ? वे अपनी जमीन पर किसे फलते हुए देखना चाहते हैं, प्रकृति को या इमारतों को? क्या आपकी नजर में विकास के पथ पर जाने का कोई और सरल मार्ग है? यदि है तो वो क्या? ये सारी बातें आप हमें बताइए अपने फोन में नंबर 3 दबाकर।