उत्तर बिहार की जीवनदायिनी नदी बूढ़ी गंडक मूल पहचान खोते जा रही है। अब इसकी पहचान कूड़ा-कचरा ढोने वाली नदी के रूप में होने लगी है। स्थिति यह है कि शहर के हर नाले का बहाव नदी की ओर है। कचरा और औद्योगिक अपशिष्ट निष्पादन का यह आसान माध्यम बनी हुई है। प्रदूषण से इसकी कलकल करती धाराओं का रंग बदरंग हो चुका है। शहर की सभी नालियों का अंत बूढ़ी गंडक नदी में होता है। इन नालों के जरिए शहर भर की गंदगी अनवरत इस इसमे पहुंचती रहती है। चीनी मील, डेयरी समेत कई अन्य उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थो को नदी में प्रवाहित किए जा रहे है। आम लोग भी नदी में कूड़ा-कचरा फेकने से बाज नहीं आते। इस कारण कभी पूर्णत साफ दिखने वाली नदी का पानी अब जैसे काला हो गया है।न सिर्फ नदी की गहराई घट रही बल्कि इसका पानी जहरीला हो रहा है। नदी को प्रदूषित होने से रोकने की कोई व्यवस्था सरजमी पर आज तक नहीं दिखी। प्रदूषण की मार झेल रही नदी की तरफ किसी जनप्रतिनिधि ने भी ध्यान नहीं दिया ।
उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरणविदों की याचिका पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी किया है। पर्यावरणविद मुंबई तट पर बनने वाली शिवाजी की प्रतिमा पर न्यायालय से रोक लगाने की मांग कर रहे हैंसरदार पटेल की प्रतिमा के अनावरण के बाद से ही छत्रपति शिवाजी की मूर्ति चर्चा में बनी हुई है। इसके खिलाफ उच्च न्यायलय में कई याचिकाएं दाखिल की गई थीं लेकिन न्यायलय ने इसपर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।याचिका में कहा गया था कि महाराष्ट्र में सूखे के हालात हैं। ऐसे में मूर्ति के बजाय ध्यान देने के लिए कई दूसरे मुद्दे भी हैं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि इस पैसे को कहीं सही जगह लगाकर बिगड़ रही स्थिति को सुधारा जा सकता है। बिगड़ती स्थिति को देखने की बजाय सरकार 3600 करोड़ रुपए स्मारक पर खर्च कर रही हैं।
युवा पीढ़ी यदि एयरकंडीशंड दफ्तरों के बजाय खेतों की ओर आकर्षित हो तो यह बदलते भारत की सुखद तस्वीर है। पंजाब में यह होते दिख रहा है। पर्यावरण हितैषी सोच संग उन्नत कृषि की राह पकड़ रही है युवा पीढ़ी। नई तकनीक और नई सोच वाले कई युवाओं को पंजाब की मिट्टी की महक मोहित कर रही है और उन्होंने कृषि को करियर के रूप में चुना है। लॉ, आइटी से लेकर मार्केटिंग और बिजनेस की पढ़ाई के बाद इन क्षेत्रों में करियर बनाने के बजाय उन्होंने कृषि को अपनाया। ये युवा खेतों में पूरे जज्बे के साथ काम करते देखे जा सकते हैं। इससे कितनी कमाई हो रही है, उनके लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती है, उनको बस इस बात का सुकून है कि वे अपनी जड़ों से जुड़ कुछ बेहतर और सार्थक कर रहे हैं। जैविक कृषि इनका साधन है और पर्यावरण संग स्वस्थ समाज की नींव ध्येय। इसी से ही वे अपनी जरूरतें भी पूरी कर रहे हैं।
हिमालय पर बढ़ते प्रदूषण के प्रभाव का आकलन करने के लिए अमेरिकी वैज्ञानिकों का एक दल विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के अभियान पर बुधवार को रवाना हुआ। वेस्टर्न वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के जॉन औल की अगुवाई में वैज्ञानिकों का यह दल ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का भी अध्ययन करेगा।इस अभियान में यह भी पता लगाया जाएगा कि बदलती जलवायु और बढ़ते प्रदूषण के कारण स्थानीय लोगों को भविष्य में किस प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। वैज्ञानिकों का यह दल 8,850 मीटर ऊंचे माउंट एवरेस्ट पर मई में चढ़ाई शुरू करेगा। इस अभियान के दौरान एकत्रित किए गए नमूनों का पूर्व में जुटाए गए नमूनों से तुलनात्मक अध्ययन किया जाएगा।वैज्ञानिकों ने 2009 में भी हिमालय से नमूने इकट्ठा किए थे। पिछले अभियान के दौरान 2014 में भी जॉन औल के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने एवरेस्ट पर चढ़ाई का प्रयास किया था, लेकिन वह असफल रहा था। उस अभियान में शामिल 16 शेरपा गाइड की हिमस्खलन की वजह से मौत हो गई थी। उस हादसे में औल भी घायल हो गए थे। इसलिए नए सिरे से प्रयास करने के लिए औल फिर अपने दल के साथ अभियान पर निकले हैं।
एशिया के कई देशों में वायु प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन की बढ़ती मात्रा एक बड़ी समस्या है. इन ख़तरों से निपटने में बिजली चालित वाहन एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं और इसी उद्देश्य से भारत सहित कई देशों में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने वाली नीतियां अपनाने की दिशा में काम किया जा रहा है. हाल ही में भारत सरकार ने बिजली से चलने वाली कारों के ख़रीदारों और निर्माता कंपनियों को 1.4 अरब डॉलर की सहायता मुहैया कराने की घोषणा की. सरकार की ओर से प्रस्तावित 1.4 अरब डॉलर में से 1.2 अरब डॉलर की राशि सब्सिडी के तौर पर दी जानी है जबकि 14 करोड़ डॉलर से कारों को रिचार्ज करने का ढांचा तैयार करने पर ध्यान दिया जाएगा. बाक़ी बची राशि से प्रशासनिक और विज्ञापन संबंधी ज़रूरतों को पूरा किया जाने की योजना है.
संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट में सचेत किया गया है कि पर्यावरण को इतनी गंभीर क्षति पहुंची है कि अगर ज़रूरी कदम नहीं उठाए गए तो लोगों के स्वास्थ्य पर इसके दुष्परिणाम बढ़ते जाएंगे. पिछले पांच सालों में पर्यावरण की मौजूदा स्थिति पर तैयार की जाने वाली यह सबसे व्यापक समीक्षा है. नैरोबी में दुनिया भर से विदेश मंत्री पर्यावरण पर चर्चा के लिए उच्चतम स्तरीय पर्यावरण मंच पर एकत्र हुए हैं और इसी अवसर पर 'ग्लोबल एनवार्यमेंटल आउटलुक' (Sixth Global Environmental Outlook) की छठी किस्त को जारी किया गया है.इस रिपोर्ट को 70 देशों के 250 वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने मिलकर तैयार किया है. रिपोर्ट बताती है कि पर्यावरण संरक्षण में तत्काल तेज़ी लाने की आवश्यकता है नहीं तो एशिया, मध्य पूर्व और अफ़्रीका के शहरों और क्षेत्रों में लाखों लोगों के सदी के मध्य तक असामयिक मौत का शिकार होन ेकी आशंका है.
जलवायु परिवर्तन के कारण आ रही प्राकृतिक आपदाओं के चलते बांग्लादेश के 1.9 करोड़ बच्चों का जीवन प्रभावित हो रहा है। कई लाख बच्चे छोटी सी उम्र में ही मजदूरी करने को विवश है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, कमजोर तबके के लोग अपने बच्चों को उचित भोजन, शिक्षा व चिकित्सा भी मुहैया नहीं करा पा रहे हैं। इसी कारण देश में बाल-मजदूरी व बाल-विवाह की समस्या बढ़ रही है।यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा, जलवायु परिवर्तन से बांग्लादेश के साथ दुनियाभर में बच्चों का विकास बाधित हो रही है। बांग्लादेश में करीब 1.2 करोड़ बच्चे नदियों के आसपास और 45 लाख तटीय इलाकों में रहते हैं। समय-समय पर चक्रवात व बाढ़ के कारण उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। जलवायु परिवर्तन से सूखे की समस्या भी बढ़ गई है।
वायु प्रदूषण इस वक्त ना केवल भारत बल्कि दुनियाभर के देशों के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है। इस मामले में सबसे आगे भारत और चीन हैं। साल 2017 में जहरीली हवा से दुनियाभर में पचास लाख लोगों की मौत हुई है। इनमें 25 लाख मौत केवल भारत और चीन में हुई हैं।यानि दुनियाभर में जहरीली हवा से होने वाली मौतों में 50 फीसदी इन्हीं दो देशों में हुई हैं। ये बात वैश्विक वायु प्रदूषण पर आधारित एक रिपोर्ट में कही गई है। ये रिपोर्ट अमेरिका स्थित दो इंस्टीट्यूट ने तैयार की है।रिपोर्ट में कहा गया है कि दोनों देशों में प्रत्येक में 12 लाख लोगों की मौत 2017 में वायु प्रदूषण से हुई है। इस प्रदूषण में घरों में मौजूद वायु प्रदूषण भी शामिल है। इस अध्ययन रिपोर्ट का शीर्षक 'स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019' है। इसके मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण आज के समय में दक्षिण एशिया में पैदा होने वाले बच्चे के जीवन के ढाई साल कम हो रहे हैं। भारत में मौजूद स्वास्थ्य के खतरों में मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण है। जितनी मौत कुपोषण, शराब और शारीरिक निष्क्रियता से होती हैं, उससे कहीं अधिक वायु प्रदूषण से होती हैं। प्रदूषण संक्रामक रोगों के साथ-साथ अन्य रोगों के लिए भी जिम्मेदार है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन और भारत दोनों ने वायु प्रदूषण को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। इस रिपोर्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गई उज्जवला योजना का भी जिक्र किया गया है। जिससे ना केवल बाहरी बल्कि घर के अंदर का प्रदूषण भी काफी हद तक खत्म हुआ है।
उच्चतम न्यायालय ने गोवा के मोपा में एक अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा के लिए मिली पर्यावरण मंजूरी पर शुक्रवार को रोक लगा दी। शीर्ष अदालत ने विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) को इस परियोजना का पारस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखते हुए अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने ईएसी से परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी भूमिका और कार्यों का निर्वहन करने को कहा। पीठ ने कहा कि ईआईए रिपोर्ट से यह गंभीर खामी उभर कर सामने आई है कि वह परियोजना स्थल से 10 किमी के अंदर पश्चिमी घाट के पारिस्थितिकी संवदेनशीलता को संज्ञान में लेने में नाकाम रही। पीठ राष्ट्रीय हरित अधिकरण के 21 अगस्त 2018 के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। दरअसल, एनजीटी ने गोवा के मोपा में एक नया हवाई अड्डा बनाने के लिए मिली पर्यावरण मंजूरी को रद्द करने से इनकार कर दिया था।
पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। पेड़ काटकर जंगल के कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएं भी नहीं थीं। प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर कहीं और देखने को नहीं मिलता है।भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मांं स्वरूप माना गया है।ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है।यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है। लेकिन, यह भी सच है कि यदि ये परंपराएं न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती।