शिक्षा का मंदिर, जहां हम अपने बच्चों को यह सोचकर भेजते हैं कि उसे अच्छी तालीम मिलेगी, अच्छे संस्कार मिलेंगी और कम से कम एक वक्त तो भरपेट भोजन मिल सकेगा. पर क्या कभी सोचा है उन लोगों बारे में जो हमारे बच्चों को पोषण दे रहे हैं? जैसे मां घर में अपने बच्चे के खाने का ख्याल रखती है वैसे ही मिड डे मील योजना के तहत देशभर में 30 खानसामे हैं जिन पर उनकी सेहत बनाएं रखने की जवाबदेही है. सबसे खास बात यह है कि इस जिम्मेदारी को निभाने वाली ज्यादातर महिलाएं हैं. क्योंकि इस नए भारत में खाना बनाना अभी भी महिलाओं की ही ड्यूटी समझी जाती है. खैर यदि बात करें, बिहार के बारे में तो यहां हर रोज एक करोड़ 20 लाख बच्चों को मिड-डे मील परोसा जा रहा है. जिसके लिए दो लाख 48 हज़ार कुक हैं जिसमें 85 फीसदी महिलाएं हैं. क़रीब 300 बच्चों का खाना बनाने के लिए हर महिला को एक महीने में महज 1250 रुपये मिलते हैं. वे 8 घंटे काम करती हैं पर न्यूनतम मजदूरी की भी हकदार नहीं हैं. वहीं दूसरी ओर बिहार के एक रेस्त्रां में काम करने वाले अप्रशिक्षित मज़ूदर की न्यूनतम आय 257 रुपये प्रतिदिन है और सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिश के अनुसार न्यूनतम वेतन 18 हज़ार रुपये प्रति माह है. यदि दोनों की तुलना की जाए तो मिड डे मील बनाने वाली महिलाओं को अप्रशिक्षित मजदूरों से 10 गुना कम मजदूरी दी जाती है. क्या आपको नहीं लगता कि हमारे बच्चों की सेहत बनाने वाली महिलाओं को खुद का पेट भरने के लिए ज्यादा मजदूरी की जरूरत है? स्कूल के बच्चों को सेहतमंद तो बना लिया पर खुद के बच्चों के लिए 12 रुपए में कितना पोषण आहार खरीद पाती हैं ये महिलाएं? यह उदाहरण साफ बताता है कि राज्य में महिला और पुरूषों के बीच न्यूनतम मजदूरी का अंतर आज भी बना हुआ है. आप इस बारे में क्या सोचते हैं? क्या खाना बनाने वाली महिलाओं की मजदूरी में इजाफा होना चाहिए? यदि हां तो कितना? इसके साथ ही हमें बताएं कि आपके क्षेत्र में मिड डे मील व्यवस्था की स्थिति कैसी है? अपने विचार हमारे साथ साझा करने के लिए अपने फोन में दबाएं नम्बर तीन. और इसके साथ ही सुनते रहें मोबाइल वाणी एप. आम आवाम की खास आवाज!