सरकार द्वारा लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीट आरक्षित करने और गांवों में पीएम आवास योजना के तहत 70 प्रतिशत से ज्यादा मकान महिलाओं को देने से देश में महिलाओं की गरिमा बढ़ी तो है। हालांकि, इन सबके बावजूद कुछ ऐसे कारण हैं जो महिलाओं को जॉब मार्केट में आने से रोक रहे हैं। भारत में महिलाओं के लिए काम करना मुश्किल समझा जाता है. महिलाएं अगर जॉब मार्केट में नहीं हैं, तो उसकी कई सारी वजहें हैं, जिनमें वर्कप्लेस पर काम के लिए अच्छा माहौल न मिल पाना भी शामिल है . दोस्तों, हर समस्या का समाधान होता है आप हमें बताइए कि *----- नौकरी की तलाश में महिलाओं को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है। *----- आपके अनुसार महिलाओं के नौकरी से दूर होने के प्रमुख कारण क्या हैं? *----- महिलाओं को नौकरी में बने रहने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
उत्तरप्रदेश राज्य के जिला महराजगंज से आदित्य यादव , मोबाइल वाणी के माध्यम से यह बताना चाहते है कि लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या पिछले आम चुनावों के बाद से लगातार बढ़ रही है । संसद में महिलाओं की भागीदारी व्यापक भी नहीं रही है , लेकिन अगर आप पिछले तीन आम चुनावों को देखें तो तस्वीर बदल जाएगी । कई दशकों के बाद महिला सांसदों का आंकड़ा दस प्रतिशत के करीब है । अब राजनीतिक दल या वे आने वाली आबादी को लुभाने के वादों के साथ सभी प्रकार के उद्यम कर रहे हैं , इससे उम्मीद बढ़ गई है कि उन्हें संसद में अपना सही स्थान पाने और विधानसभाओं में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देने के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा । प्रासंगिक महिला और महिला अधिनियम दो हजार उनसठ , यदि लागू किया जाता है , तो महिला सांसदों की बढ़ती भागीदारी का एक लंबा इतिहास होगा , जिससे लोकसभा में महिलाओं की दस प्रतिशत से अधिक भागीदारी सुनिश्चित होगी । संसदों की संख्या ने पचास का आंकड़ा पार कर लिया जब दो हजार उनसठ महिलाएँ लोकसभा की कुल पाँच सौ पैंतालीस सीटों में से सदस्य होंगी , जो सीटों का दस दशमलव नौ प्रतिशत था । इस चुनाव में कुल 8076 उम्मीदवारों में से अड़सठ महिलाएँ थीं । पहली बार चुनावों में यह आंकड़ा पैंतालीस प्रतिशत को पार कर गया संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत उत्साहजनक नहीं रही है , लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले तीन आम चुनावों में नौ से उन्नीस के बीच , आधी आबादी की लोकसभा में हिस्सेदारी है ।
बीते दिनों महिला आरक्षण का बहुत शोर था, इस शोर के बीच यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए की अपने को देश की सबसे बड़ी पार्टी कहने वाले दल के आधे से ज्यादा भू-भाग पर शासन होने के बाद भी एक महिला मुख्यमंत्री नहीं है। इन सभी नामों के बीच ममता बनर्जी इकलौती महिला हैं जो अभी तक राजनीति में जुटी हुई हैं। वसुंधरा के अवसान के साथ ही महिला नेताओं की उस पीढ़ी का भी अवसान हो गया जिसने पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय तक महिलाओं के हक हुकूक की बात को आगे बढ़ाया। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जबकि देश में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने की बात की जा रही है। एक तरफ महिला नेताओं को ठिकाने लगाया जा रहा है, दूसरी तरफ नया नेतृत्व भी पैदा नहीं किया जा रहा है।
सवाल है कि जिस कानून को इतने जल्दबाजी में लाया जा रहा हैं उसके लागू करने के लिए पहले से कोई तैयारी क्यों नहीं की गई, या फिर यह केवल आगामी चुनाव में राजनीतिक लाभ पाने के दृष्टिकोण से किया जा रहा है।