लोकतंत्र का उत्सव इन चुनावों ने राजनेताओं और जनता को बहुत से सबक दिये हैं। ऐसे सबक जो केवल चुनावी राजनीति में नहीं बल्कि जीवन के हर पहलू में हमें सीखना जरूरी सा है। ये सबक आज के आज़ाद भारत के समाज को समझने के लिए बेहद जरूरी हैं।

भारतीय संविधान को 74 वर्ष पूर्व 26 नवंबर 1949 को लिख कर पूर्ण हुआ था। और 26 जनवरी 1950 को देश प्रजातांत्रिक घोषित हुआ था। संविधान के 465 अनुच्छेद में एक अनुच्छेद 51 (ए) एच भी है। इस अनुच्छेद के अनुसार वैज्ञानिक सोच, चेतना का विकास, मानवतावाद, किस भी घटीत धटना के पीछें की सत्यता की जांच व सुधार की भावना विकसित करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा। और इस के संचालन के लिए राज्य कटिबध्द होगे। लेकिन ऐसा हमें कही दिखाई नहीं देता है। वैज्ञानिक सोच व मानवतावादी आम जनमानस के लिए यह एक मात्र शब्द है। जो अपनी यथार्थ के मुल विषय को छू भी नहीं पाता है।

भारत में जादू-टोना हमारी अंधविश्वासी मान्यताओं और लोक कथाओं का एक हिस्सा है। माना जाता है कि जादू-टोना विशेष शक्तियों द्वारा संचालित किया जाता है। जिसके माध्यम से व्यक्ति या वस्तुओं को प्रभावित किया जा सकता है। उन्हें नुकसान पहुंचाया जा सकता है। जब कि यह एक प्रकार का अंधविश्वास है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जादू-टोना की सहायता से किसी को भी बीमार किया जा सकता है या उसे मारा जा सकता है। हमारे समाज में यह एक आम भ्रांति है। इनसे बचाव के लिए किई निरर्थक टोटके भी बताए जाते है। जिसमें घोडे की नाल, पीले कपड़े में चावल बांधना आदि शामिल है। कई बीमारियां जैसे लिव्हर की बीमारियां, पेट का अल्सर, आदि असाधरण बीमारियां आसानी से समझ में नहीं आती है। और कुछ दिनों बाद तकलीफ यानी दर्द देते रहते है। कई बार इसे किसी का जादू-टोना समझकर अज्ञानवश निर्दोष लोगों को परेशान किया जाता है।

शरीर में देवी-देवताओं का प्रवेश होना बताने वाली महिला द्वारां विशेष आवाज बनाकर निकालना, घूमना, आरती के समय नाचना जेसी गतिविधियां की जाती है। इसी दौरान भक्तों के सवालों के जबाब दिए जाते है। बीमारी तथा दूःख दूर करने के लिए नींबू, धागा, ताबीज़, आदि देकर समस्या से मुक्ति दिलाने का दावा किया जाता है। इस तरह का कार्य करने वाले मांत्रिक-तांत्रिक, भगत, पंडा, बाबा, देवी सभी ढोंगी होते है। देवी-देवता शरीर में आने के संबंध में मनोविज्ञानिकों का कहना है कि यह हिस्टेरिया है। यह मनोविज्ञानिक बीमारी है। जो अकसर उन महिला में या पुरूषों में होती है जो की विशेष परिस्थित से या तनाव से गुजर रहे है। एक्सपर्ट यह भी मानते है कि लगातार किसी मंत्र, भजन, तबले या ढोलक की आवाज की वाईब्रेषन से भी ऐसा होता है। यह आवाजे अंतरमन को सूचनाएं देती है और पहले से ही परेशान महिला या पुरूष अजीब व्यवहार करने लगते है। इसे साईकाॅलाजी की भाषा में पेजेशन सिंड्रोम कहते है।

छिपकली का शरीर पर गीरना, महिला के हाथ में खाली घड़ा देखना, बिल्ली का रास्ता काटना, मुंडेर पर उल्लू आकर बैठना या उसने आवाज निकालना, बात करते हुए छिक आना जैसी घटनाओं को हम शुभ या अशुभ के साथ जोड़ते है। मान्यता है कि अपशकुन हो जाए तो अच्छे भले चलते हुए काम भी रूक जाते हैं, जीवन में कई मुसीबतें आ जाती हैं। शुभ अशुभ संकेतों को लेकर हमारे बड़े बुजुर्ग इन से बचने की सलाह न जाने कब से देते आ रहे हैं। शकुन अपशकुन अंधविश्वास पर आधारित अवधारना है। शकुन यानी भविष्य में घटीत होने वाली शुभ या अशुभ बातों की सूचना देना है। शकुन व अपशकुन यह शकुन के दो प्रकार हैं लेकिन इस की और देखने की कई प्रकार की विधियां है। इसी को कुछ जगह सच-झूठ, दाहिना-बाया, शुभ- अशुभ इस तरह की पर्यावाची नाम दिए जाते है।

संपूर्ण विश्व में प्रकृति और पुरूष अर्थात जड़ और चेतन दो तत्वों की सत्ता है। इन दो गुण धर्मो से पृथक किसी तीसरे तत्व की अनुभूति किसी को नहीं होती। परंपरा से चली आरही कहानियों पर भरोसा कर मनुष्य पूर्वग्रहरहित और निष्पक्ष होकर प्रकृति के गुण धर्मो का अध्ययन नहीं करना चाहता। क्यों कि इससे उसके दैवीय कल्पना का महल ध्वस्त होन लगता है। इस लिए वह परंपरा में मिली बातों पर भरोसा करने लगता है। भूत-प्रेत, जिन्द, चुडैल, मरी-मशान, ब्रम्ह राक्षस आदि का कही कोई अस्तित्व नहीं है। फिर भी परंपरा में सुनी सुनाई बातो एवं अज्ञानवश मनुष्य भू-प्रेत आदि के भ्रम में पड़ा हुआ है श्री लंका के डाॅ अब्राहम कोवूर और अमेरिका के जेम्स रैंडी ने भूत के दावेदारों को खुल चुनौती दे रखी थी । अमेरिका में दि कमेटी फाॅर दिसाइंटिफिक इन्वेस्टीगेशन ऑफ दि क्लेम्स ऑफ दि पैरानाॅर्मल नाम की वैज्ञानिक संस्था ने भूत के तत्थों को बेनकाब किया है। आज तक तमाम दावेदार भूत का अस्तीत्व होने की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाए है। महाराष्ट्र की अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निमूर्लन समिति भूत दिखाओ 21 लाख का इनाम ले जाओं घोषणा करते आ रही है लेकिन आब तक काई भूत नहीं दिखा पाया है।

समाज में बढ़ते आधुनिकतावाद में आस्था व अंघविश्वास से जुड़े विषय भी फैशन का जगह ले लेते है। पैर में काला धागा बांधने का समाज में फैशन सा चल पड़ा है। माना जाता है कि पैरों में काला धागा पहनने से बुरी नजर नहीं लगती है। इस के साथ नकारात्मक उर्जा कोसों दूर रहती है, जिस से स्वास्थ्य और तरक्की पर बुरा असर नहीं पड़ता है। काला धागा पांव में बांधने के वर्तमान में चाहे जो भी कारण हो लेकिन यह हमारी अंधविश्वासी सोच व मानसिकता गुलामी को दर्शाता है। आज भले शुद्रों को अपनी पहचान के लिए काला धागा नहीं बांधना पड़ रहा हो लेकिन ज्यादातर लोग बुरी आत्मा, बुरी शक्तियों से बचने अपने पांव में काला धागा बांध रहे है। 21 वी सदी के वैज्ञानिक युग में भी हम पुरानी दकियानुसी, गुलामी या जातियों के श्रेणी में अछुत होने की पहचान रखने का काला धागा अपने पांव में बांध रहे है।

बिल्ली रास्ता काट दे, तो हम कुछ समय के लिए रूक जाते है या फिर अपना रास्ता बदल देते है क्यों । क्योंकि ऐसा करना हमें बताया गया है । वैज्ञानिक युग में भी हम समाज में अंधविश्वास फैलाने वाले तथाकथित बाबा, पडियार, मांत्रिको द्वारा श्रद्धा व आस्था के आड़ में समाज में अपना मायाजाल फैलाकर लोगों का आर्थिक, शारीरिक, मानसिक शोषण करने वालों के अलावा राजनीतिक स्तर पर स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अंधविश्वास का सहारा लिया जाने लगा है। अंधविश्वासी मानसिक गुलामी से बाहर निकलने के लिए हमें अंधविश्वास की परिभाषा समझनी होगी । समाज में व्याप्त अंधविश्वास से कैसे मुक्ति पा सकते है पर चिंतन करने की जरूरत है।