हमें ऐसा लगता है कि गरीब व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं ले पा रहा है इसलिए वह कमजोर है. लेकिन हाल ही में आई एक नई रिपोर्ट बताती है कि कमजोर स्वास्थ्य की चपेट में तो व्हाइट-कॉलर नौकरी करने वाले भी शामिल हैं. ब्लू-कॉलर व्यवसायों में काम करने वाले लोगों की तुलना में, दिन में बेहद कम गतिविधियों के साथ व्हाइट-कॉलर नौकरियां करने वाले भारतीयों का औसत बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) ज्यादा होता है, जो मोटापे का एक संकेतक है. ‘इकोनॉमिक्स एंड ह्यूमन बायोलॉजी जर्नल’ में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार कृषि श्रमिकों, मछुआरों और घरबारी की तुलना में इंजीनियरों, तकनीशियनों, गणितज्ञों, वैज्ञानिकों और शिक्षकों का बीएमआई ज्यादा होता है. सभी देशों में, वर्तमान में भारत में अधिक वजन वाले या मोटे व्यक्तियों की तीसरी सबसे ज्यादा संख्या है. यहां 20 फीसदी वयस्कों और 11 फीसदी किशोरों को मोटे के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसा कि सितंबर 2014 के अध्ययन में सामने आया है. भारत में बीएमआई में वृद्धि संभवतया एक ‘संरचनात्मक परिवर्तन’ से प्रेरित है, जिसके कारण ब्लू-कॉलर क्षेत्र में रोजगार में गिरावट आई है. क्या आपको भी लगता है कि भारतीयों का स्वास्थ्य उनकी अनियमित दिनचर्या और खान पान के गिरते स्तर के कारण खराब हो रहा है? मोटापा कम करने के लिए आप कैसी दिनचर्या अपनाते हैं? अपने सुझाव हमारे श्रोताओं के साथ साझा करें.
इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टीबी एंड लंग डिजीज की एक रिपोर्ट मुताबिक 2016 में भारत में टीबी से ग्रस्त करीब 1.2 लाख बच्चों के मामले सामने आये. 14 साल की उम्र तक के इन बच्चों में टीबी यानी तपेदिक के मामले में भारत दुनिया के देशों में पहले स्थान पर है. चीन दूसरे पायदान पर है. चीन में बच्चों में टीबी के नए मामले भी हमारे देश की तुलना में आधे से कम हैं. ‘द साइलेंट एपिडेमिक-अ कॉल टू एक्शन अगेंस्ट चाइल्ड टीबी’ नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर के बच्चों में हर साल टीबी के करीब 10 लाख नए मामले सामने आते हैं. इनमें से हर चार बच्चों में एक की मौत हो जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक सूची के मुताबिक आठ देशों में दुनिया भर के दो तिहाई तपेदिक के मरीज हैं. गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक दुनिया को टीबी मुक्त करने का लक्ष्य रखा है, जबकि भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को 2025 तक पूरा करने की प्रतिबद्धता जताई है. इस बीमारी के उन्मूलन से जुड़े टीबी मुक्त भारत अभियान के लिए पहले तीन वर्षो में 12 हजार करोड़ रु पये का प्रावधान किया गया है, लेकिन अब तक की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है. क्या आप टीबी की बीमारी के बारे में जानते हैं? क्या आपके क्षेत्र में शासकीय स्वास्थ्य केन्द्रों ने टीबी के प्रति जागरूक करने के लिए कोई कार्यक्रम चलाया है? क्या आप टीबी की बीमारी की रोकथाम के लिए शुरू हुई शासकीय योजनाओं के बारे में जानते हैं? हमारे साथ साझा करें अपने अनुभव.
बीते 10 सालों के भीतर इन्टग्रेटिड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विस-आईसीडीएस कार्यक्रम के तहत पूरक पोषण आहार प्राप्त करने वाली महिलाओं और बच्चों की संख्या में चार गुना वृद्धि हुई है. लेकिन चिंता की बात यह है कि इस सुविधा का लाभ समाज की सबसे गरीब महिलाओं तक नहीं पहुंचा है. “इंडिया इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवल्पमेंट सर्विसेज प्रोग्राम: इक्विटि एंड एक्सटेंट ऑफ कवरेज इम 2006 एंड 2016” नाम से हुए अध्ययन में सामने आया है कि जो महिलाएं अशिक्षित थीं या सबसे गरीब घरों से थीं, उनकी प्रमुख पोषण कार्यक्रम तक पहुंच कम थी. 2006 में सबसे गरीब घरों में आईसीडीएस सेवाओं का सबसे अधिक उपयोग किया गया था, उनका हिस्सा 2016 में दूसरा सबसे कम बन गया, जो यह संकेत देता है कि इसके पीछे के कारणों में खराब डिलीवरी, दूरदराज के क्षेत्रों तक पहुंचने की कठिनाई और जाति जैसे सामाजिक विभाजन शामिल हो सकते हैं. वाशिंगटन विश्वविद्यालय के इंटरनेश्नल फूड पॉलिसी रिसर्च के शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि सबसे गरीब और सबसे अमीर दोनों समूहों की तुलना में निम्न से मध्य सामाजिक-आर्थिक ब्रैकेट में भोजन की खुराक, पोषण परामर्श, स्वास्थ्य जांच और बाल-विशिष्ट सेवाएं प्राप्त करने की अधिक संभावना थी. प्राइमरी और सेकेन्ड्री स्कूली शिक्षा प्राप्त महिलाओं की तुलना में बिना स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं की आईसीडीएस सेवाएं प्राप्त करने की संभावना कम थी. आपके क्षेत्र में गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति कितना जागरूक हैं? क्या उन तक शासकीय स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ पहुंच पा रहा है? हमारे साथ साझा करें अपनी बात.
पोलियो के पी-2 वायरस के कारण हाल में पल्स पोलियो अभियान को लगभग पांच हफ्ते तक टालना पड़ा था. स्वास्थ्य मंत्रालय ने पहली बार यह तथ्य स्वीकार किया है. पी-2 वायरस पिछले साल सितंबर में अचानक सामने आया था। तब उसने सरकार को काफी परेशान किया था. इसका डर अब भी स्वास्थ्य मंत्रालय की योजनाओं पर असर डाल रहा है. पांच साल तक के बच्चों को पोलियो टीके की मौखिक खुराक देने के लिए पल्स पोलियो अभियान पहले 3 फरवरी को होना था. बाद में इसे कोई कारण या नई तारीख बताए बिना टाल दिया गया. इसके बाद 10 मार्च की तारीख तय हुई थी. अब बिहार और मध्यप्रदेश में यह अभियान 7 अप्रैल को चलेगा. अधिकारियों का कहना है कि पी-2 वायरस दोबारा सामने आने के बाद यह सही नहीं होता कि मौजूदा स्टॉक में पी-2 की मौजूदगी की जांच कराए बिना बच्चों का टीकाकरण करते. इसलिए हमने सभी टीकों के सैंपल जांच के लिए भेज दिए थे. यही कारण है कि अभियान में देरी हो रही है. क्या आपके क्षेत्र में पल्प पोलियो अभियान के तहत बच्चों को दवाई पिलाई जा रही है? क्या आपके क्षेत्र के लोग पोलियो की दवाओं के प्रति जागरूक हैं? हमारे साथ साझा करें अपनी बात.
बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण और अनियमित दिनचर्या ने ऐसी कई बीमारियों को जन्म दे दिया है, जो विज्ञान को हैरान और इंसान को परेशान कर रही हैं. ऐसा ही एक मामला मेरठ में देखने मिल रहा है. जहां शहर के लोग एक रहस्यम बीमारी की चपेट में आ रहे हैं और डॉक्टर्स को भी उनका इलाज नहीं मिल रहा है. जिले में पिछले 12 माह में 70983 मरीज ऐसे मिले हैं, जिन्हें दो से तीन सप्ताह तक 101 डिग्री फॉरेन्हाइट से ज्यादा बुखार रहा. चिकित्सकों ने इनकी लैब में जांच कराई. लेकिन कोई भी बीमारी प्रकाश में नहीं आई. यानी यह पता नहीं चल पाया कि इन लोगों को बुखार आखिर किस वजह से हुआ. इस संबंध में स्वास्थ्य विभाग ने शासन को रिपोर्ट भेजी है. इस रहस्यमयी बुखार को स्वास्थ्य विभाग ने फीवर ऑफ अनॉन ओरिजिन (अज्ञात कारणों से हुआ बुखार) की श्रेणी में रखा है. अमूमन अगर बुखार होता है तो उसका कारण स्वाइन फ्लू, डेंगू, चिकनगुनिया, टायफाइड और निमोनिया आदि माना जाता है. इनकी जांच कराई जाती है और जांच में ज्यादातर में इनमें से कोई न कोई कारण निकल ही आता है. लेकिन पिछले 12 माह में रहस्यमयी बुखार से महानगर जकड़ा रहा. हालांकि सभी मरीज कुछ माह में ठीक हो गए. क्या आपने अपने क्षेत्र में भी ऐसी किसी रहस्यमय बीमारी या महामारी का प्रकोप देखा है? आपके क्षेत्र में लोग बीमारियों के प्रति कितना जागरूक हैं? हमारे साथ साझा करें अपने अनुभव.
भारत और ब्रिटेन के स्वास्थ्य विशेषज्ञ भारत सरकार की पहल आयुष्मान भारत के बाद उभरते अवसरों को तलाशने के लिए बर्मिंघम में अनोखे तरह के एक सम्मेलन के लिए एकत्रित हुए। ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग, बर्मिंघम में भारत के महावाणिज्य दूतवास, भारतीय उद्योग परिसंघ की तरफ से पिछले हफ्ते बर्मिंघम के क्वीन एलिजाबेथ अस्पताल में यह सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें 120 विशेषज्ञ कार्यस्थल की चुनौतियों पर चर्चा करने एवं स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में संभावित आदान-प्रदान के स्तर का आकलन करने के लिए साथ आए।
एम्स ट्रामा सेंटर के आपातकालीन विभाग में मरीजों की भर्ती को एक महीने तक रोके जाने की संभावना है। रविवार को लगी आग के चलते आपातकालीन विभाग का ऑपरेशन थियेटर एरिया भी प्रभावित हुआ है। इसी के चलते ओटी (ऑपरेशन टेबल) के काम नहीं करने के कारण सोमवार को पहले से निर्धारित सर्जरी को स्थगित कर दिया गया। वहीं, नए मरीजों को भी भर्ती नहीं किया जा रहा है।
बिहार के अररिया ज़िले में चुनाव दर चुनाव के बाद भी स्वास्थ्य विभाग की स्थिति सुधरने का नाम नहीं ले रही है। डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के पदस्थापन की स्थिति तो अरसे से चिंताजनक है। इस मायने में सदर अस्पताल सबसे अधिक उपेक्षित है। एक तरफ जहां अस्पताल में प्रति दिन ओपीडी रोगियों के सात सौ से पार होने का दावा विभागीय अधिकारी करते हैं। वहीं दूसरी तरफ पदस्थापित एमबीबीएस डॉक्टरों की संख्या दर्जन भर भी नहीं है। जिला स्वास्थ्य विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक जिले में सदर अस्पताल, फारबिसगंज अनुमंडल अस्पताल के अलावा दो रेफरल व सात प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। सभी अस्पतालों को मिला कर डॉक्टरों के कुल करीब 200 पद स्वीकृत हैं, लेकिन सदर अस्पताल सहित जिले भर में सिर्फ चार दर्जन के करीब डॉक्टर ही कार्यरत हैं।
अब एएनएम वर्कर हर घर के सदस्य की सेहत का ख्याल रखेंगी और उसका हिसाब भी रखेंगी। वे टैबलेट के जरिए हर परिवार का पंजीकरण स्वास्थ्य विभाग की वेबसाइट पर अपडेट करेंगी। इससे स्वास्थ्य विभाग के पास परिवार के हर सदस्य का रिकॉर्ड रहेगा और यह जानने में आसानी होगी कि क्षेत्र में कौन सी बीमारी ज्यादा फैल रही ह। किसी क्षेत्र में संक्रमित बीमारी फैलने पर ये एएनएम वर्कर मरीजों को घर से नजदीकी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, प्राथमिक केंद्र या जिला अस्पताल ले जाने में भी मदद करेंगी।
टीबी जैसी गंभीर बीमारी से देश को मुक्त कराने के लिए मोदी सरकार ने 2025 तक का लक्ष्य रखा है, लेकिन ऐसा हो पाना मुश्किल ही लग रहा। बात करें पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस की तो यहां टीबी के मरीजों की संख्या घटने के बजाए लगातार बढ़ती ही जा रही है। बनारस में 2017 की तुलना में 2018 में टीबी के 2,730 ज्यादा मरीज पाए गए। 24 मार्च को विश्व टीबी दिवस के मौके पर देश भर में टीबी के प्रति लोगों में जागरुकता लाने के लिए कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। स्वास्थ्य विभाग की ओर से निक्षय पोषण मिशन योजना के तहत टीबी के मरीजों को पोषाहार का सेवन करने के लिए आर्थिक मदद 500 रुपये सीधे उनके खातों में भेजे जा रहे हैं। बनारस जिले में 2017 में टीबी के 101 मरीजों को 500 रुपये दिये गए। वहीं 2018 में 4,536 और 2019 में टीबी के अब तक 280 मरीजों को 500 रुपये दिए जा चुके हैं। अकेले बनारस में 2017 की तुलना में 2018 में टीबी के 2,730 ज्यादा मरीज पाए गए. चौंकाने वाले इन आंकड़ों से हम कह सकते हैं कि सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। तो श्रोताओं, आप हमें बताएं कि टीबी की रोकथाम के लिए किए जा रहे प्रयास बुनियादी तौर पर कितने कारगार साबित हो रहे हैं? इस गंभीर बिमारी के खात्में के लिए और क्या कुछ किया जाना चाहिए? अपने संदेश रिकॉर्ड करवाएं।