पर्वतीय क्षेत्र में 90 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं. लेकिन दुखद बात यह है कि अब उनके पास खेती करने के लिए जमीन ही नहीं बची है. जमीन का कुछ हिस्सा प्राकृतिक आपदा की चपेट में आ गया और कुछ बेच दिया गया. उत्तराखंड के लिहाज से देखा जाए तो केवल 20 प्रतिशत भूमि ही है जहां कृषि की जा सकती है. नतीजतन किसान राज्य से पलायन कर मजदूरी के लिए बाकी राज्यों का रूख करने लगे हैं. राजस्व विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय 9 नवम्बर 2000 को राज्य में 7 लाख 76 हजार 191 हेक्टेयर कृषि भूमी थी. जो अप्रैल 2011 में घटकर 7 लाख 23 हजार 164 हेक्टेयर रह गई. इन वर्षों में 53 हजार 027 हेक्टेयर कृषि भूमी कम हो गई. इसका सीधा मतलब यह हुआ कि इनते समय अंतराल में औसत 4 हजार 500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष की गति से खेती योग्य जमीन कम हुई है. उत्तराखंड हाईकोर्ट भी इस मसले पर चिंता व्यक्त कर चुका है. राज्य में खेती के लिए केवल 20 प्रतिशत जमीन है, जिसमें से केवल 12 फीसदी ही सिंचित है. बेची गई ज्यादातर जमीनों पर शॉपिंग मॉल, पांच सितारा होटल और थियेटर बनना शुरू हो गए हैं. आलम यह है कि कुछ वर्ष पहले तक बोरियों के हिसाब से अनाज और खाद्यान्न पैदा करने वाला पहाड़ी किसान, आज अपना पेट भरने के लिए महज 10 से 20 किलो गेंहू और चावल लेने के लिए सस्ते गल्ले की दुकान पर लगी लंबी लाइन में खड़ा अपनी बारी का इंतजार कर रहा है. देखा जाए तो यह गंभीर समस्या है. कृषि से पर्याप्त आय नहीं होने के कारण किसानों का खेती से मोहभंग होना और फिर मजदूरी के लिए पलायन करना हर राज्य के परिपेक्ष्य से आम हो गया है? क्या आपने भी किसानों की इस समस्या को करीब से महसूस किया है? क्या आपके पास कोई सुझाव हैं जो संकट के दौर में किसानों के काम आ सकें? हमारे साथ साझा करें अपने विचार.