चुनाव दर चुनाव ये मुद्दा गर्माता है कि आखिर प्रवासी मज़दूर जो काम के सिलसिले में एक जिले से दूसरे जिले और एक राज्य से दूसरे राज्य भटकते रहते हैं, और छुट्टी न मिलने के कारण वोट नहीं दे पाते उनके लिए क्या विक्लप निकाला जा ना चाहिए, लेकिन हर बार ये मुद्दा राज नेताओं की चर्चाओं में ही सिमट कर रह जाता है। बात करें अगर बिहार की तो यहां पहले चरण के मतदान के लिए ज़ोर शोर से तैयारियां हो रही हैं, लेकिन खामोशी है उन प्रवासी श्रमिकों की ज़िदगी में जो चाहते हुए भी लोकसभा के इस महापर्व में मतदान नहीं कर पाएंगे। होली के बाद बिहार से तमिल नाडू लौटने वाले कुछ श्रमिकों ने बताया कि उन्हें कंपनियों की तरफ से साफ फरमान था कि अगर एक दिन भी रुक गए, तो नौकरी गई। वोट डालने के लिए वो वापिस नहीं आ सकते। यहीं हाल दिल्ली एनसीआर में काम करने वाले लाखों प्रवासी श्रमिकों का है, जो चाहते हुए भी वोट नहीं कर पाएंगे। कपड़ा उद्योग में लगे श्रमिकों के लिए इस समय सबसे ज्यादा काम रहता है, अधिक्तर श्रमिक वोट डालने के बारे में सोच भी नहीं रहे, लेकिन ये ज़रूर चाहते हैं कि सरकार ऐसा विक्लप निकाले कि वो लोग दूर रहते हुए भी वोट डाल सकें। गौरतलब है कि बीते साल लोकसभा ने लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक 2017 पास किया था, जिसमें प्रवासी भारतीय मतदाताओं की परेशानियों को दूर करने की पहल की गई है जिससे वे अपने निवास स्थान से अपने मताधिकार का प्रयोग ( यानि की प्रॉक्सी वोटिंग) कर सकें, लेकिन इस दौरान जब भारत में प्रवासी मजदूरों के सामने मतदान को लेकर आने वाली समस्याएं पर ध्यान दिए जाने कि बात उठी तो सरकार का कहना था कि चुनाव आयोग ने एक समिति बनाई है जो इस विषय में अध्ययन कर रही है, उन्हें भी उचित अधिकार दिया जाएगा। एनआरआई की तरह देश के अंदर यहां से वहां जाकर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों को भी प्रॉक्सी से मताधिकार देने के सवाल पर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना था कि एनआरआई और प्रवासी श्रमिकों की तुलना नहीं की जा सकती, प्रवासी श्रमिक भारत में ही रहते हैं। यही तो विड्म्बना है कि जहां वो रहते हैं उनके गृह राज्य में उनके मुद्दे सुने नहीं जाते क्योंकि वो तो मतदान के समय अपने राज्य में आते नहीं, और जहां वो रहते हैं, वहां राजनेताओं को उनमें कोई दिलपचस्पी नहीं क्योंकि प्रवासी मज़दूर उनका वोटबैंक नहीं है। ऑक्सफ़ोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट ने भारत में अपनी पहली रिपोर्ट रेटिंग गिग इकोनॉमी प्लेटफ़ॉर्म (यानि कि ऐसा बाज़ार व्यव्था यहां छोटे ठेके या फ्रीलांस काम ज्यादा हो) को उनकी कामकाजी परिस्थितियों – काम पर न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिहाज से जारी किया है।गिग इकोनॉमी में प्रवेश करने वाले कई भारतीयों के साथ, जिसमें लेबरफोर्स भी शामिल है, जो फ्लिपकार्ट, उबेर जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म द्वारा प्रबंधित किया जाता है, दूसरों के बीच कार्यस्थल की स्थिति एक महत्वपूर्ण विचार बन गई है।वॉलमार्ट के स्वामित्व वाले ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म फ्लिपकार्ट ने अपनी डिलीवरी और लॉजिस्टिक्स आर्म ईकार्ट के लिए भारत में सात अंकों की स्कोरिंग के साथ कंपनी रैंकिंग में शीर्ष स्थान हासिल किया।फूड डिलीवरी प्लेटफॉर्म फूडपांडा, कैब सर्विसेज प्लेटफॉर्म ओला और उबर ने न्यूनतम मजदूरी के मापदंड को पूरा करते हुए सिर्फ दो अंक हासिल किए। इस रिपोर्ट ने बाजार को पांच मोर्चों पर मापा – निष्पक्ष वेतन, उचित काम करने की स्थिति, उचित अनुबंध, जो नियम और शर्तों, निष्पक्ष प्रबंधन और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व के आसपास पारदर्शिता है। पिछले 14 सालों में देश की करीब 5 करोड़ ग्रामीण महिलाएं अपनी नौकरियां छोड़ चुकी हैं। 2004-05 से शुरू हुए इस सिलसिले के तहत साल 2011-12 में नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी सात प्रतिशत तक कम हो गई थी। इसके चलते नौकरी तलाशने वाली महिलाओं की संख्या घट कर 2.8 करोड़ के आसपास रह गई। ये आंकड़े एनएसएसओ की पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 की रिपोर्ट पर आधारित हैं जिन्हें जारी करने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा दी है। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2004-05 की तुलना में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 49.4 फीसदी से घटकर 2017-18 में 24.6 फीसदी रह गई। हालांकि इसके विपरीत एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि शिक्षा में उच्च भागीदारी की वजह से महिलाएं नौकरियों से बाहर हो रही हैं, लेकिन इस एक कारण से इतनी बड़ी संख्या में भागीदारी कम होने को सही नहीं ठहराया जा सकता।