वैसे तो देश में पूर्ण लॉकडाउन नहीं लगा है पर जिस तरह के हालात बने हुए हैं उनमें अधिकांश कारखाने बंद हैं. बहुत से दुकानदार कर्फ्यू के डर से दुकानें नहीं खोल रहे हैं. ये वही हालात हैं जो अब से कुछ माह पहले भी बनें थे. जब छोटे-छोटे बच्चों को कंधे पर बैठाएं लोग, बूढ़े मां-बाप को सहारा देकर पैदल या साइकिलों पर सवार किए हुए, अपने घरों की तरफ लौटती भीड़ को हम सबने देखा था. साथियों, हम ये बाते कर रहे हैं क्योंकि लॉकडाउन के पूरे एक साल बीत चुके हैं. उन्ही हालातों को समझने के लिए हम लेकर आए हैं अपना कार्यक्रम लॉक डाउन का एक साल- हम श्रमिकों को रहेगा याद की तीसरी कड़ी यानि काम पर वापसी. श्रोताओं, जब शहरों से लोग गांव पहुंचे थे तो उन्हें उम्मीद थी कि गांव में कुछ ना कुछ रोजगार मिल जाएगा पर उन्हे ना तो मनरेगा में काम मिला ना वे अपना व्यवसाय शुरू कर पाए. जो जमापूंजी थी वो भी खत्म होने लगी. जब कोई रास्ता नहीं मिला तो लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बिना फिर से शहरों की तरफ रूख किया. कुछ कंपनियां और कारखाने खुले तो उन्होंने मजदूरों को कम संख्या में ही सही पर काम पर बुला लिया और कुछ ने साफ इंकार कर दिया. जो मजदूर काम पर लौटे हैं वे पहले से भी बदत्तर हालात में हैं. जिन राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों को उनकी कुशलता के आधार पर काम देने का वायदा किया था वे पूरे नहीं हुए. साथियों,बहुत से श्रमिक भाईयों के साथ ये हालात बन गए कि उन्हें परिवार का भरण पोषण करने के लिए महंगे ब्याज पर कर्ज लेने की नौबत आ गई. जो कभी औरों को काम दिया करते थे वे अब खुद काम की तलाश में हैं. हम आपसे जानना चाहते हैं कि क्या आपको नहीं लगता कि राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों का बस इस्तेमाल किया? मजदूरों को रोजगार देने, कम दाम पर घर और अनाज देने का जो वायदा किया गया था वो उनके साथ एक और धोखा था? हम आपसे आपकी परिस्थितियों के बारे में जानना चाहते हैं. हमें बताएं कि दोबारा शहर लौटकर आप किन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं.