झारखण्ड राज्य के बोकारो जिला के पेटरवार प्रखंड के तेनुघाट अनुमंडल से सुषमा कुमारी मोबाइल वाणी के माध्यम से बताती हैं कि वर्षों से जंगल में रह रहे आदिवासी समुदाय का जीवन प्रकृति पर निर्भर करती आ रही हैं। लेकिन आज उन्हीं आदिवासियों को जंगल छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कर तरह-तरह की लालसा दे कर जंगल छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है।आदिवासी समुदाय पेड़-पौधों और प्रकृति को बचाने की पूरी कोशिश करते आ रहे हैं। वहीँ दूसरी ओर आदिवासियों के अलावा और ऐसा कोई नहीं है जो पेड़-पौधों के साथ-साथ प्रकृति को बचाए रखने पर ध्यान दिया हो। आज कई क्षेत्रों में हजारों की संख्या में पेड़ों को काट कर बड़ी-बड़ी इमारते बनाई जा रही है। जो आने वाले समय में ख़तरनाक रूप ले सकता है। अतः सभी लोग को एक जुट हो कर पेड़ों एवं जंगलो की रक्षा के लिए आने की जरुरत है।

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झारखंड राज्य के बोकारो जिले के नावाडीह प्रखंड से जे.एम रंगीला और इनके साथ छपरी पंचायत के उपमुखिया सूर्य नारायण महतों हैं। वे मोबाइल वाणी के माध्यम से बताते हैं, कि भूमि अधिग्रहण कानून केवल पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाएगा। इस कानून में आम आदमी के हिस्से में उपेक्षा,तीसकरण एवम अति की प्राप्ति होगी। आज विकास के नाम पर किसानों के साथ अन्याय किया जा रहा है। किसानो से उसकी जमीन लेकर और फिर थोड़ा मुआवजा देकर उन्हें चुप कर दिया जा रहा है। जिसे पा कर कोई भी किसान खुश नहीं है।

छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगाँव से वीरेंद्र गन्दर्भ मोबाइल वाणी के माध्यम से बताते हैं, कि जंगलों से हमें अनमोल जड़ी बूटियों को प्राप्ति हुई है। और कई प्रकार के पशु पक्षी रहते हैं, जो हमारे पर्यावरण को स्वछ रखने में मदद करती है। आज उसी जंगलों को समाप्त करने में जुटे हुवे हैं

छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगाँव से वीरेंद्र गन्दर्भ मोबाइल वाणी के माध्यम से बताते हैं, कि जंगल में अनमोल जड़ी बूटियाँ,पेड़ पौधे,जीव जन्तु एवं तरह-तरह पशु पक्षी निवास करते हैं। जो हमारे वातावरण को शुद्ध एवम स्वछ बनाए रखता है। लेकिन आज इन्ही जंगलों को लोग काटने में लगे हुए हैं। ऐसी स्थिति में जगल भी एक कहानी बन कर रह जाएगी। लोग अपने आने वाले पीढ़ी को कभी जंगल के बारे में रूबरू नहीं करवा पाएंगे। अतः जगंल को बचाने एवम देश को विकास की ओर ले जाने के लिए एक जुट हो कर हल निकाला जाए, कि कैसे बिना जंगल को काटे देश का विकास हो सकता है।

साथियों हम कहां रहते हैं? चारों ओर दीवारों से बने एक जाल में , एक ऐसे मकान में जहाँ अगर हम अपने कमरे की खिडकियां खोले तो दूर तक दिखाई देता है कंक्रीट का जंगल. जहां भीड है, शोर है, प्रदूषण है, तनाव है और चारों ओर इमारतें ही इमारतें. असल मायनों में यदि किसी ने जंगल को जिया है तो वे हैं झारखंड के आदिवासी. जिनकी रूह तक में जंगल ही बसता है. पर विकास की नै परिभाषा के नाम पर सरकार ने एक पांसा फेंका...! जिसका नाम है— झारखंड भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक. जिसे पिछले साल ही राष्ट्रपति से मंजूरी मिल गई है और मामला बस राज्य और केन्द्र के बीच अटका हुआ है. और इसी के साथ अटकी हैं झारखंड प्रदेश के आदिवासियों की सांसे. वे घबराए हुए हैं ये सोचकर कि क्या होगा जब सुबह आंख खुलेंगी और पेडों की छांव उनके सिर पर नहीं होगी? और इसके साथ ही रातों रात हाशिए पर खड़ा आदिवासी विकास की इस नई परिभाषा के साथ मुख्य धारा में शामिल होे जाएगा? उनकी जरूरतें जंगलों से ही पूरी हो रही हैं लेकिन विकास के नाम पर अब उसी जंगल को छीनने की जंग जारी है. आदिवासी सेंगल अभियान और दूसरे संगठनों ने इस मसले पर हाहाकार मचा दी है. चुनाव का माहौल है तो पार्टियां भी इस मसले को अपने तरीके से भुनाने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन हम आपसे जानना चाहते हैं कि इस पूरे शोर के बीच आप या हमारे राज्य की आम जनता क्या सोचती है, जिसने अपनी कई नस्लें जंगलों के भरोसे जी हैं ? वे अपनी जमीन पर किसे फलते हुए देखना चाहते हैं, प्रकृति को या इमारतों को? क्या आपकी नजर में विकास के पथ पर जाने का कोई और सरल मार्ग है? यदि है तो वो क्या? ये सारी बातें आप हमें बताइए अपने फोन में नंबर 3 दबाकर।